पैंतीस पार की कविताएँ

 

पैंतीस के बाद की कविताएँ,
किसी बंद कमरे की खिड़की पर
देर तक ठहर गई धूल सी आती हैं।
या किसी पुरानी याद की तरह,
जो दूर से, बहुत हौले से, यादों में दस्तक देती हैं।

इनमें अब वो तूफ़ानी शोर नहीं होता,
जो दीवारों से टकराता था कभी, इंक़लाब की तरह।
अब तो बस एक धीमी सी सरगोशी है,
जैसे सिगरेट का आख़िरी कश, हवा में घुलता हुआ,
किसी अधूरी, अनकही बात का मतलब टटोलता हुआ।

इनकी स्याही में मिली होती है,
गुज़री बरसातों की हल्की सी नमी,
और कुछ अनकहे से अफ़सोस की ख़ामोशी।
ये उन शब्दों से नहीं बनतीं जो ज़ोर से बोले गए,
बल्कि उनसे, जो वक़्त के साथ अंदर ही कहीं,
एक महीन सी परत बन कर रह गए।

ये उस रोशनी में लिखी जाती हैं शायद,
जो दिन ढलने पर पुराने फर्नीचर पर ठहर जाती है –
हल्की, पीली, कुछ उदास।
अब ये दुनिया को बदलने नहीं निकलतीं,
बस चुपके से उसे देखती हैं, एकटक,
जैसे कोई पुराना दोस्त, जिसे बहुत कुछ कहना था,
पर अब बस मुस्कुरा कर रह गया हो।

शायद इनमें अब वो पहले सी आग नहीं,
जो हर चीज़ को जला कर नया कर देना चाहती थी।
पर एक ठहरा हुआ सा ताप ज़रूर है,
जैसे अँगीठी में बची हुई राख,
जो सुबह की पहली सर्द हवा में भी,
हौले से अपनी गरमाहट का एहसास दिलाती है।

ये पैंतीस पार की कविताएँ हैं,
ज़िंदगी की किताब के हाशिये पर लिखी हुईं,
ख़ामोश सी, गहरी इबारतें।


तारीख: 02.06.2025                                    मुसाफ़िर




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