आत्मा: एक मुसाफिर

चला गया हँसता एक मुसाफिर,

रोता लौटा जग में कोई और ।।

आते रहते हैं सैकडों इसी तरह,

चलता रहता निरंतर ये दौर ।।

 

जीवन जीव की गति ना समझे,

उलझा रहता जग की माया में ।।

जीवन उसके बस की चीज़ नहीं,

छटपटाता रहता निज काया में ।।

 

बुद्धिमान समझ के इसकी चाल,

गोते लगाते हर्ष की नदियों में ।।

नासमझ हैं कुछ तो जग में ऐसे,

भटकते रहते ईश की गलियों में ।।

 

होके राम भी अवतारी जगत में,

मन खोल के दु:ख-सुख को खेला ।।

मुरारी भी यही संदेश दिए हमें,

हर कष्टों को निज सिर पर झेला ।।

 

नचिकेता को यमराज ने बताया,

आत्म-ज्ञान का रहस्य समझाया ।।

राम, कृष्ण सबने मृत्यु को पाया,

ज्ञानी भी अज्ञानी खुद को पाया ।।

 

 है मुसाफिर इस अंबर का आत्मा,

ये तन हमारा इसका प्रिय ठौर ।।

प्राणी भी मुसाफिर हैं इस जग में,

ठौर नहीं है पृथ्वी-सा कहीं और ।।


तारीख: 17.12.2017                                    दिनेश एल० जैहिंद









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