ईश्वर, आध्यात्म, शाश्वत सत्य व धर्म
हैं पर्यायवाची, कि अलग अलग मर्म……
धर्म……
छलावा है कि अच्छा है कि बूरा है?
है कुछ ऐसी ही जिज्ञासा,
कि,
ये मदिरा है, शराब है, मद्य है कि सुरा है?
शांति, स्थिरता, कृतज्ञता, नितिपरायणता,
आशावाद व मानवीयता का जनक
तो
असहिष्णुता, मिथ्याभिमान, मिथ्याचरित्र,
डर, तनाव, अलगाव व ढोंग का प्रतिपादक
छलावा बन,
नरकदंड व धर्मयुद्ध जैसे उपदेश
तो, मत परिवर्तन कर
जेहादी आतंकवाद तक को जन्म देने में सक्षम
तो क्या है ये स्वनिरूपित, स्वग्रहित, स्वरचित सा भ्रम?
क्या कोई लत है ये धर्म?
नहीं,
यह लत तो कदापि नहीं…..
धर्म एक उद्देश्य की आधारभूत इच्छा को
उसी तरह करता है पोषित
जैसे श्वांस जीवन की आधारभूत जरूरत को,
देती है सम्बल, पर बगैर लत बने
परंतु केवल तभी तक,
जब तक कि ये श्वांस स्वच्छ हो…..
अर्थात,
ज्ञान रहित धर्म कट्टरपंथ और असहिष्णुता है
जबकि धर्म रहित ज्ञान घमंड…..
तो इसका संतुलन कैसे हो……
धर्म के इस संतुलन को,
जन्म लेता है आध्यात्म……
आध्यात्म,
आध्यात्म, मगर कौनसा आध्यात्म
तपश्चर्या या सुखवाद, जड़वाद या शाश्वतवाद,
दैववाद या यादृच्छिकतावाद
किसी भी अध्यात्म की अधिकता,
संगीत पैदा करने में रुकावट ही पैदा करती है
संसार सदैव,
गतिशीलता व अस्थायित्व का निरूपण है
परन्तु,
धैर्य स्व जागरण का मार्ग है
और, आध्यात्म है इस धैर्य की कुंजी…..
इंद्रिय लोभ, अवमानना, संताप, अनुरूपता
ये सबको मिलते हैं
किसी को कम, किसी को अधिक
आत्मा को मन के अनुरूप चलाना दुष्कर कार्य है
और
मन आत्मा का कहा सुनने को तैयार नहीं होता है
तो
बीच का रास्ता यही बचता है
कि ये स्वीकार कर लिया जाए
कि आत्मा व मन दोनों मिलकर शरीर को चलाते हैं
और दोनों की ही सुननी पड़ेगी,
परंतु किसकी कितनी, ये संतुलन हमे ही करना पड़ेगा
और, इस पतली सी डगमगाती हुई
अत्यंत दुष्कर जीवन रस्सी पर
संतुलनसाध्य लकङी है आध्यात्म…….
संतुलन कब हो, कैसे हो, कितना हो?
इसका निर्धारण करता है, ज्ञान
और ज्ञान से उत्पन्न होता है सत्य……
तो क्या है ये,
सत्य अथवा शाश्वत सत्य……..
अगर खोजा जाये तो शाश्वत कहां?
और शाश्वत हो तो खोज क्यूँ…….?
क्या, ज्ञान को सत्य कहा जा सकता है?
या, सत्य ही ज्ञान है?
प्रकाश की गति हमने माप ली है,
परंतु, जब हम ब्रह्मांड की गहराईयों में उतरते हैं
तो,
विज्ञान का, यह आधारभूत तथ्य तलक भी ललकारा जाता है
ज्ञान, सत्य के
अधिकतम नजदीक पहुंचाने का प्रयास करता है
जैसे जैसे हम नया जानते हैं,
सत्य भी नया होता जाता है
जैसे, जीवन मृत्यु का चारा और मृत्यु शाश्वत सत्य
उसी तरह,
असीम या शाश्वत सत्य तो हो सकता है
परन्तु शाश्वत ज्ञान नहीं हो सकता है,
सत्य वह है जो वास्तविकता है,
जबकि ज्ञान वह है,
जिसके सहारे से अवधारणा जन्म लेती है
और अवधारणाओं को गठित करने की क्षमता,
स्वयं अवधारणाओं की प्रकृति द्वारा मर्यादित होती है,
लेकिन, मर्यादाओं के इस निर्धारण से,
अन्ततः,
सत्य की प्रकृति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है
इसे मिसाल, रुपावली, उदाहरण,
आदर्श, प्रतिमान, परिप्रेक्ष्य जैसे शब्दों से समझा जा सकता है
परन्तु,
जब सत्य की खोज में समझ और परिष्कृत होती है
तो, ये आदर्श रुपावलियां बदल जाती हैं
फिर भी सत्य तो जो है, वो है
अतैव सत्य शाश्वत होकर भी शाश्वत नहीं है
आध्यात्म, शाश्वत सत्य व धर्म
तीनों का संतुलन है वास्तविक जीवन
और
इनका मिलन जिस शब्द पर होता है
उसे कहा जाता है, “ईश्वर”
ये ब्रह्मांड,
समय तथा स्थान के परिछेत्र में परिभ्रमण करता है
यह भौतिक परिछेत्र,
सदैव,
प्रकाश-अंधकार, अच्छाई-बुराई,
सुगम-कठिन, जीवन- म्रत्यु
जैसी द्विविमिओं से बंधा हुआ है
इन द्विविमिओं से परे,
और
समय तथा स्थान से भी आगे,
कुछ ऐसा है,
जो ईश्वर तत्व के नाम से सम्बोधित होता है
“ईश्वर” नाम अथवा परिकल्पना,
प्रयास है तारीफ का उसकी,
जो,
अनाम है, गहन है, अथाह है, अगाध है,
और
अकल्पनीय, अचिंतनीय, अकथनीय, अनिर्वचनीय भी
बाह्य ब्रह्मांड में रहते हुए हम,
व्यवहार, विमर्श व
इसकी स्वनिर्मित स्वनिरुपित सीमाओं से
और
आंतरिक ब्रह्मांड में,
विचार व भाषा तत्त्व से बंधे हुए हैं
दया व अनुकम्पा के प्रयास से
हम इस सत्य तत्व से एकमेव होकर
ईश्वरिय बुद्धत्तव तक पहुंच सकते हैं
इसे जानने की,
सर्व सरल परिभाषा यह है कि,
विशेष परिस्थितियों में पैदा होने वाले अन्तरबल को,
ईश्वर कहा जा सकता है…..
अगर समझ ना आया तो,
अपने मुश्किल समय व उससे बाहर आने की कवायद,
दोनों को याद करके देख लिजिये…….
इस ईश्वर तत्व की एक वृहद समस्या है,
कि, यह वास्तविक होकर भी वास्तविक जान नहीं पड़ता,
परंतु फिर भी ये एक अटल वास्तविकता है
और
हम वास्तविकता को अनदेखा कर सकते हैं
परंतु,
वास्तविकता को अनदेखा करने के,
परिणामों को अनदेखा नहीं कर सकते
और फिर,
सजा का भय व्याकुलता पैदा करता है
और यह विशिष्ट व्याकुलता,
अतिसतर्कता के रूप में परिलक्षित होती है
अंधकार के बिना,
प्रकाश का ना ही तो अस्तित्व है और ना ही महत्व,
अतः, अपने अंधियारे का सम्मान करो
और
इसे अनुकंपा दो ना कि अहम का पोषण
अपने आशीर्वाद का अनुकरण करो
उन इच्छाओं को पोषित करो
जो कि, आपकी जिज्ञासा व रूचियो को,
ज्वलनशीलता प्रदान करती हैं
सामाजिक दबाव से ऊपर उठकर,
अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन सुनिश्चित करो
और
अपना हुनर, योग्यता व बुद्धिमत्ता को साझा करो
ख़ुद को खुद से,
कष्टदायक प्रश्नों को पूछने के लिए प्रस्तुत करो
कि, मैं इस रिश्ते से वास्तव में खुश हूं
या
मैं इसे अकेले पड़ जाने के डर से निभा रहा हूँ
अपने आत्मकथन का विश्वास करो
दर्द, दुख, हानि अपरिहार्य हैं,
परन्तु इन पर हमारी प्रतिक्रिया
पूर्णतः हमारी स्वसंपदा…..
अतः इसे सोच समझ कर खर्च करो……
क्योंकि होने वाला लाभ भी हमारा होगा
और
हानि भी पूर्णरूपेण सिर्फ ओर सिर्फ हमारी…..