गुम हो गया

 

सुबह जिसके सहारे मैं उठता था
अंगड़ाइयाँ लेता था
वो चिड़िया की चीं- चीं आज बंद है

जो आती थी उस खिड़की से
मुसकाती - मंद, रोशनी - हवा बंद है

घर से निकलता था जब भी बाहर
तब जो साथ चलता था, वह श्वान भी आज गुम है

लिखता था जिन कागजों पर
वो आज कलम सहित गुम हैं

हर दिन बनता था दिन मेरा
वो दिन भी तो आज कम है

अब तो हर घड़ी मेरी आँखों में सपने हैं
क्योंकि मेरी आँखें जो बंद हैं।
 


तारीख: 18.08.2017                                                        अमर परमार






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