( मत्तगयन्द/मालती सवैया छन्द )
(कविता)
हम भूल गये हर बात
एक अजीब सुनी हम बात, विराट कला दिखलाय रहा था।
आनन से नर एक रचा, भुज दीगर जन्म दिखाय रहा था।
जाँघ फटी तब अन्य हुआ नर, अद्भुत दृश्य दिखाय रहा था।
जो पद से उपजा उसको, अति नीच, अछूत बनाय रहा था।। (01)
आज अचम्भित आप हुए सुन, क्या यह बात तुम्हें मन भाई?
लेकिन लोग लखाय विराट, कहाँ कब जन्म पिता बिन माई?
बिन्द बिना कब होय निषेचन, वाह! विज्ञान बताय सचाई।
गल्प गढ़ा गरिमा हित लोगन, केवल कल्पित बात बनाई।। (02)
बालक जन्म हुआ मुख से, यह बात बता भव को भरमाया।
दुष्टन ने तरकीब रची यह, कल्पित काल कहाँ कब आया?
शर्म करो कुछ मूर्ख महा, मति मन्द असत्य सदा बतलाया।
चाल चली चकमा अति देकर, सृष्टि समेत हमें बहकाया।। (03)
हस्त भुजा नर जन्म बताकर, मूर्खपना सब सिद्ध किया है।
हाथ हमें हर हालत में करने, कछु काम कमान दिया है।
हस्त भुजा यदि बालक जन्म, हुआ तब क्यों धनि जन्म लिया है?
बाहुन से जनते जग जीवन, स्त्री तन क्योंकर कष्ट दिया है? (04)
जाँघ जहान जरूर रचा यह, बात बड़े बदमाश गढ़ी है।
बेलखणे बदमाश बड़े, बहकावत लोगन, चाल चली है।
रान सहायक भार सहे सब, मानुष बैठन हेतु बनी है।
जो जणदे शिशु सो उरु सृष्टि, न आज, अभी न, कभी न बनी है।। (05)
मानव जन्म बतावत जो पद, से वह बिल्कुल पागल होगा।
जो पद-पंकज पैदल चालत, चालन से सब नाशत रोगा।
सम्बल पैर कलेवर का, पग पावत पूरण जीवन होगा।
आनन पाँवन भेद बताकर, भोग सदा सुखदायक भोगा।। (06)
आनन ने पग दास बनाकर, छूत-अछूत विभक्त किया है।
जाँघन नीच, पगा अति नीच, भुजा कर का अपमान किया है।
मैं मुख हूँ अति श्रेष्ठ सदा, सब अंग शरीर गुलाम किया है।
कोय करो मत प्रश्न कभी, कर काम, अधीन बनाय लिया है।। (07)
आनन ऊपर है सबसे कह, बात भुजा बहकाय दई है।
जाँघन पाँवन राज करो अब, आदर आनन आन लई है।
बाहु गुलाम बनी मुख की, करने इन पे अतिचार गई है।
जाँघ अछूत व पाँव अछूत महा, मुख आज उपाधि दई है।। (08)
खेल अजीब रचा मुख ने, भुज, जाँघ व पाँव गुलाम बने है।
खावत माल मजे मुख के, करते सब कारज तीन जने है।
आनन लाल, लहू लव पीवत, शोषण से मुँह माथ सने है।
पैर व रान सदा तड़पे, मुख मारत बान बयान घने है।। (09)
चाल चली मुँह ने नव, मानव मानस पे अधिकार किया है।
ज्ञान-विज्ञान न जानत आनन, ढोंग व रूढ़ि सिखाय दिया है।
पाँव तथा उरु को धमका खुद, श्रेष्ठ सतोगुण सिद्ध किया है।
शक्ति रखी निज हाथन, बाहुन को उरु-पैर समाज दिया है।। (10)
सत्य सनातन श्रेष्ठ सदा मुख, आपन देव बनाय लिया है।
बाहु रजोगुण राज करो पर, आनन आदर काम दिया है।।
जाँघ जघन्य मलीन बताकर, नीच-अछूत बनाय दिया है।
द्वेष घृणा पग से रख, नीचन में, अति नीच बनाय दिया है।। (11)
देव बना खुद को पुजवाकर, अंग सभी वश में कर लीने।
बाहुन को बहला भरमा, अधिकार किया अरु आमिष दीने।
जाँघन को ललकार रहा मुख, शोषण आत्म शरीरन कीने।
पीटत पैर करी बदहालत, नग्न शरीर, दिया कब जीने।। (12)
नेम विधान रचा मुख ने, खुद को शुभ शुद्ध सनातन माना।
पाप करे बहु भाँति भले मुख, आनन दण्डित पात्र न माना।
दण्ड विधान भुजा,उरु,पाँवन, हेतु बना मुख ने यह माना।
बाहुन को कम, रान सजा बड़, पैरन को अति लायक माना।। (13)
आनन का अपमान करे भुज, पाप पड़े, अभिशाप मिले है।
जाँघ जताय जरा हक तो मुख, मानत भीषण नर्क मिले है।
पैरन की अति दीन दशा, मुख ने कर दी अरु और गिले है।
पाँव कहे अपने हक की कुछ, तो मुख ने हर होठ सिले है। (14)
जो जन जीभ जरा कह दे कुछ, तो रसना पर खड्ग धरा है।
पाँव उठावत आनन पे कर, कातिल क्यों कर काट धरा है।
जो सुन ले बर बैन कभी पग, कान तपाकर तेल भरा है।
आँख उठाकर देखत जो मुख, नेत्र निकालत, पैर मरा है।। (15)
पाँवन पाँव पुकार पड़ा, पग जो पथ चालत राह कड़ी है।
साँझ प्रभात न राह चलो तुम, नेम तजा तब मार पडी़ है।
धूप पड़े पग पैर निकालत, पैरन लंक बुहार पडी़ है।
जो पग लागत आनन अंग, तभी हथियारन
चोट पड़ी है।। (16)
आनन का अतिचार निरन्तर, खूब चला दिन- रात करोड़ों।।
मानवता मन मार दई मुख, जुल्म किये कल लाख करोड़ों।
छूत-अछूत व नीच-बड़े, बद, भेद भरा भरमाय करोड़ों।
ढोंग रचाकर मन्त्र सुनाकर, पैर ठगे, ठग लाख करोड़ों।। (17)
आज अभी जस की तस हालत, रौंद रहा मुख अंगन भारी।
दीन दशा दस की कर दी मुख, लालच लोभ बढ़ा बड़ भारी।
सोय शरीर समेत सदा सब, अंग गुलाम बने अति भारी।
आपस में लड़ते दिन-रात, न जान सके सब, को अतिचारी? (18)
आनन लूटत है सब अंगनि, चाल चले चकराय सभी को।
हाथ लड़े पग, जाँघ लड़े कटि, आँख लड़े श्रुति, माथ सभी को।
नाक लड़े कर, बाहु लड़े वक्ष, जानु लड़े नख, जीभ सभी को।
बाल लड़े सिर, दाँत लड़े लव, नाभि लड़े धड़, पेट सभी को।। (19)
आपस में सब साथ सहायक, होकर हाथ मिलाकर आओ।
आनन का अतिचार मिटाकर, “मारुत” जाग जहान जगाओ।
मानवता ममता समता, सुकुमार विचार विचारत जाओ।
अन्ध अराजक आनन आज तजो, तब सुन्दर विश्व बनाओ।। (20)