लौटा दो मुझे वो मेरा घर


लौटा दो मुझे वो मेरा घर, थोडा सा महल, थोडा खंडहर ।
लौटा दो बिछड़े मीत मुझे, लौटा दो भूले गीत मुझे ।।
जिस घर में बीता था बचपन, आँगन में खिली जवानी थी ।
वो माँ की गोद फिर लौटा दो, जिसमें सो कर सुनी कहानी थी ।
वो भूत मुझे तुम लौटा दो, जो बरगद के पेड़ पर रहता था ।
जिसके किस्से सुनने को, मैं माँ के गोद में सोता था ।।


बचपन की थी हर बात अलग, बचपन के हर संवाद अलग।
थे बड़े जो उनसे प्यार मिला, जग में सुंदर परिवार मिला।
सिमटे साधन थे जीने के, पर जीवन को आकार मिला।
चेतक था मैं मैदानों का, हँसते-रोते अरमानों का।
हैरान निगाहें कहती हैं, बचपन था बड़े फसानों का।।


महलों की थी ना आस मुझे, अमृत की थी ना प्यास मुझे।
बस दिल में कुछ शैतानी थी, अपने मन की मनमानी थी।।
वो मित बड़े मतवाले थे, कुछ सीधे-कुछ घुंघराले थे।
था उनके बातों में बचपन, पर हरकत बड़े निराले थे।
ना जाति-पांति की फिक्र तनिक, ना लज्जा की तैयारी थी।
क्या था बचपन बस यारी थी, दिल में ना तनिक मक्कारी थी।


सरपट दौड़ा जिसपे बचपन, वो डगर मुझे तुम लौटा दो।
जो रात गुजारी दिये तले, वो रात मुझे तुम लौटा दो।।
बचपन इक सजी कहानी थी, जिसमें राजा थे, रानी थी।
दिल में रहता था प्यार उमड़, हर दिल की नई कहानी थी।।
तितली के पीछे भागा मैं, परियों का लिए इरादा मैं।
मन की उड़ान भर नभ लाँघा, कुछ उम्र से ज्यादा माँगा मैं।।


ना फिक्र थी कुछ खो जाने की, ना बेचैनी कुछ पाने की।
अपनी भी तब कुछ हस्ती थी, खुशियाँ तब कितनी सस्ती थी।।
सपनों के तारे तोड़-तोड़, हौसलों के पहिये जोड़-जोड़, हमने की बड़ी सवारी थी।
ना फिक्र थी, ना अय्यारी थी।।
पंछी से बातें करता था, तब चाँद सिरहाने रहता था।


तु देख जवानी क्या आयी, खुशियाँ अब मुझसे शर्मायी।
लघु से विशाल हुए सपने, थे साथ में जो, खोये अपने।
क्या पाया सब खोकर हमने, कुछ जीत गये, सब हारे हैं।
अब बड़े हुए छुटा बचपन, संघर्ष बना अपना जीवन।
लौटा दो मुझे वो मन के मृग, फिर कल्पनाशील हो जाने दो।
मुझे करुण हृदय हो जाने दो, फिर से अबोध कहलाने दो।।
 


तारीख: 25.04.2020                                    अजीत कुमार सिंह









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