कविता - 01
( मनहरण कवित्त छन्द )
मत मारो जीते जी हमें
आदिवासी आदिकाल से शरण काननों की,
प्रकृति पूजक परिवार पाये जाते हैं।
जीवन जल-जंगल-जमीन को कहते हैं,
अब अक्सर अत्याचारी की गोली खाते हैं।
विपिन बसेरा बर्बाद किया किसने कहो,
वे विकास के नाम पर खदेड़े जाते हैं।
लोभ लहरें लील रही कान्तारों को “मारुत”,
वनवासी वन बचाने पे मारे जाते हैं।।
कविता - 02
( मनहरण कवित्त छन्द )
ढोल में पोल
ढोल पीटकर पाओगे सुन्दर सुर साज,
मूर्ख मनुष्यों को क्यों पीटने पर तुले हो?
शोषित शूद्रों को कभी जीवन जीने ना दिया,
पशुओं पे प्रहार करो क़ातिल खुले हो।
नारी नारायणी जननी जीवन जहान की,
उसे ताड़ना तराजू तोलने पे तुले हो।
कैसी कुत्सित मानसिकता मन में “मारुत”
कैसे माने महान नहीं दूध के धुले हो?
कविता - 03
( मनहरण कवित्त छन्द )
अत्याचार का कोष
मैं महान महाबली सबको शाप दे दूँगा,
मैं मनमानी करूँ तो तुम ताड़ना सहो।
कहूँगा कठोर कथन हासिल हक हमें,
समझो सरताज सर्वश्रेष्ठ कल कहो।
ज्ञान-गुण हीन होकर भी पाक पूजनीय,
ज्ञानी-गुणी होकर भी तुम तुच्छ ही रहो।
अतिचार अन्याय भारी भरा भारत माय,
“मारुत” महान महोदय को कैसे कहो?