मेरी बाँहों की सीमाएँ

तुम्हें
चाहे जितनी ज़ोर से
गले लगाता हूँ,
फिर  भी
मेरे अंतर्मन में
पूरा नहीं समाती हो।

 

मेरी बाँहों की सीमाएँ
छोटी पड़ जाती हैं,
और तुम्हारे
होने के अर्थ
बड़े हो जाते हैं।

 

जैसे हवा को
मुट्ठी में भरने की
कोशिश करूँ,
और हर बार
बस एक हल्की-सी
छुअन रह जाए।

 

तुम
इतनी क़रीब होकर भी
मेरी आत्मा से
इतनी दूर क्यों हो?

शायद
मेरी बाँहें
तुम्हें समेटने के लिए
नहीं बनीं,
या शायद
तुम्हारा अस्तित्व
मेरे अस्तित्व से
कहीं बड़ा है—

इसलिए हर बार,
हर प्रयास के बाद भी,
तुम
मेरी बाँहों में समा जाती हो,
पर मेरे अंतर्मन के
भीतर नहीं उतरतीं।


तारीख: 02.07.2025                                    मुसाफ़िर




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