
सड़क के किनारे
गिरे पड़े हैं कुछ पुराने क़ानून,
सड़ी हुई फ़ाइलों में दबा
सच कराहता रहता है दिन-रात।
अदालतों की ऊँची दीवारें,
काग़ज़ी इमारतों में क़ैद
लाचार आँखें,
फरियाद के घुटे गले
और ख़ामोशी की एक लंबी कतार।
सफ़ेद पोशाक पहने
झूठ की पैरवी में माहिर लोग,
हर सुनवाई के बाद
सच को थोड़ा और नीचे दबा जाते हैं,
न्याय की देवी
पट्टी बाँधे खड़ी है
जिसकी आँखों में आँसू सूख चुके हैं,
हाथों का तराज़ू अब
केवल झुका रहता है
भारी जेबों की तरफ़।
जो न्याय की प्रतीक्षा में
बरसों से खड़े थे,
उनकी पीढ़ियाँ निकल गईं
इंसाफ़ के इंतज़ार में,
सच अब थक चुका है
झूठ की ताक़त देखकर,
हर सुनवाई के बाद
पीड़ित की आस और ज़ख़्मी हो जाती है।
फिर भी कुछ आँखें हैं
जो अब भी ताकती हैं राह,
कुछ बूढ़े हाथों में अब भी
न्याय की याचिका काँपती है।
पर उनका विश्वास अब
हर तारीख़ पर टूटता जाता है,
इंसाफ़ की मूरत अब
किसी संग्रहालय का सामान लगती है।
रिश्वत के तराज़ू पर
तुलता है क़ानून आज,
सच की चीख़ों को
सुनता नहीं कोई समाज।
कहीं नोटों की थैली है,
कहीं सत्ता का आघात है,
कहीं बेबस खड़ा नागरिक
जिसके हाथों खाली क़ाग़ज़ात हैं।
किससे कहें, कहाँ गुहार लगाएँ,
अब किस आस में इंसाफ़ को बुलाएँ?
सत्य की उम्मीदों का
यहाँ यही इकलौता सुराग है,
न्याय की उम्मीद अब
सिर्फ़ एक भद्दा मज़ाक है।