पश्चिम

कविता हौले हौले से 
पश्चिम में ढलती है रोज़।
जहाँ पत्तों संग
उड़ती है सर्द एक
पतझड़ वाली हवा।


कोहरे के बीचों बीच 
अंगीठी जलाये वहाँ
बूढ़ी देहाती औरत 
की तरह बैठी रहती हैं
मेरी पंक्तिया।


चुपचाप।
अलग थलग सी।
उन से अब कोई
आवाज़ नहीं आती।


और बस,
समय के साथ 
बस धुंआ धुंआ
बढ़ता है अंधेरा।
पश्चिम में कहीं।


तारीख: 20.03.2018                                    सुचेतना मुखोपाध्याय




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