
इस कविता में, मैं अपने अतीत और भविष्य के स्व के साथ मुलाकात के विषय को छूने का प्रयास कर रहा हूँ। अतीत का वह मासूम बच्चा, जो सपनों से भरा हुआ है, और भविष्य का वह वृद्ध, जिसने जीवन के कई अनुभव बटोरे हैं, इन दोनों के साथ बातचीत करने से उत्पन्न होने वाली भावनाओं और विचारों को व्यक्त करने की कोशिश कर रहा हूँ।
एक शाम,
जब सूरज, समय की रेखा पर टिक-टिक करता थमने को था,
मैंने देखा—
अपने सामने दो छायाएँ,
एक मेरी उँगली थामे दौड़ता बचपन,
दूसरी एक छड़ी के सहारे टिके
झुकी कमर में थमी मेरी ही परछाईं।
"कहाँ खो दिए वो काग़ज़ी जहाज़?"
बचपन ने पूछा,
"वो जो हर शाम उड़ते थे सपनों की दिशा में।
क्यों अब उड़ाने से पहले हवा मापते हो?"
मैं मुस्काया नहीं,
बस देखा उसकी मिट्टी लगी एड़ियाँ,
जिनमें भविष्य की कोई थकान नहीं थी।
वो हँसा, एक कंचे मेरी ओर लुढ़का दिए
जैसे कह रहा हो,
“खेलो फिर से, नियम अब भी वही हैं,
बस तुम हारने से डरते हो।”
अभी मैं कुछ कहता,
कि समय की दूसरी परत झरझराई—
भविष्य आ खड़ा हुआ।
थका चेहरा, शांत आँखें,
जैसे हर तूफ़ान पार कर चुका हो वो मैं।
"कैसा था सफ़र?" मैंने पूछा।
वो धीमे से बोला—
"टूटेगा, गिरेगा, पर बनेगा भी।
जो खोया, वो सिखाएगा;
जो बचा, वही जीवन कहलाएगा।"
उसने मेरी हथेली में रखी एक घड़ी—
"इसमें अब भी कुछ लम्हे बचे हैं,
बचपन की मासूमियाँ और बुढ़ापे की समझ के बीच,
तू ही वो कड़ी है—वर्तमान।"
मैं बीच में खड़ा,
एक ओर कंचे और पतंगें,
दूसरी ओर चश्मा, दवाइयाँ और ख़ामोश किताबें।
बीच में मेरा मन—दुविधा से भरा,
पर एकदम जीवित।
अब समझ आया—
वो बचपन की उछाल और बुढ़ापे की स्थिरता
दोनों मुझे आकार दे रहे हैं।
मैंने अपने भीतर झाँका—
एक झील थी वहाँ,
जिसमें अतीत के छींटे और भविष्य की लहरें
एक साथ हिलकोरे ले रहे थे।
समय के इस दर्पण में,
मैंने देखा अपना असली रूप—
न कोई अफ़सोस, न कोई उतावली।
बस एक मुस्कान,
जिसमें बचपन की खिलखिलाहट
और वृद्धावस्था की समझदारी
दोनों साथ बह रही थीं।