अब सहर से परे नहीं है
रातों की आवाज़,
पौ फटते ही पता चेलगा
कितनी लम्बी रात।
बेचैन सी उहापोह
फिर सन्नाटे की काट,
चिंता से तो सन्नाटे की
कर्क ध्वनि ही माफ़।
किसको थोपें दुखड़े अपने
कितनी कर लें बात,
दुश्चिंता है अपनी अपनी
यूँ ही सबके पास।
थके हुए इन शब्दों से भी
कितना ले लें काम,
लोक गीत कब बन पाई है
क्रमिकों की आवाज़ ।
भर छागल में ठंडा पानी
छागल रक्खी ताक़,
सबकुछ होकर कुछ न होना
यह कैसा एहसास।
थोड़ा अपने भीतर देखें
थोड़ा तन से पार,
नम नयनो मे कैसे लग गई
इतनी भीषण आँग ।
अब सहर से परे नहीं है
रातों की आवाज़,
पौ फटते ही पता चेलगा
कितनी लम्बी रात।