बॉम्बे के लोकल की एक लड़की।
थी डबडबायी,
और बेहद अकुलाई
जो बह रहा था जल,
धूल-धूल जाता था काजल
जो जली धूप में थी नहाई,
जो पसीनों को रुमाल में थी बांधती
वो बॉम्बे के लोकल की एक लड़की।
कोई खड़ा,
मगर दूर बड़ा
जो सर उचकाता,
हाथ उठाता,
देखता एकटक शून्य में,
ढूंढता वो खिड़की।
जो दिखी सही,
की वो लोकल चली
दोनों दौड़े,
एक भागा उस खिड़की के पीछे,
वो उठी चली फिर गेट के पास।
फिर चलती उस लोकल की गेट पर
हुए जाने कितने हिसाब।
न जाने कितने वादे गिने गए,
फिर दोनों के सूखे गले में
न जाने कितनी कसमे उतरी,
हाथ पकड़कर झट से चूमकर,
वो खड़ी गेट पर स्तब्ध रही।
वो बॉम्बे के लोकल की एक लड़की।
फिर दूर चली वो लोकल,
फिर जाने वो कब तक रही गेट पर,
फिर जाने वो कब तक रहा वंही पर,
हाँ, कौन पहले हो नजरों से ओझल,
इसकी खूब होड़ रही।
और मैं मुर्दा सा खड़ा,
नहीं, वो जो खड़ा वँहा
वो मैं नहीं।
वो जो चली गई उसे रुलाकर, मुझे रुलाकर
वो तुम नही।
वो थी,
बॉम्बे के लोकल की एक लड़की।