तुम्हारी राहें
मेरी राहें
हैं जुदा-जुदा
मगर मंज़िल
दोनों की एक है
कभी तुम मौन
कभी मैं बद्ध-जिह्व
विस्मय-बोधक भाव लिए
निहारती पौन हमें
हर पल निस्तब्ध
हर भाव निशब्द
नीरवता की चादर में
सिमटी हुई
अलसाई सांझ घूरती है
डूबते सूरज को
मिटा दें क्लांति
हटा दें विरक्ति
हो शांति संधि
तन्हाई और नीरवता में
फिर
धुंधले बादलों के पार
सन्नाटे को चीरकर
अनजान मंज़िल को
थाम लेंगे हम
अपनी अंजुरियों में