वो कहता है
मैं बहुत 'बुरी' प्रेमिका हूँ।
मुझमे
फेलिस का काफ्का
छुपता हुआ
पाता है।
काफ्का,
जो शब्दों में प्रेम करता है
मिलन के क्षणों में चिंतन करता है।
और लौट कर लिख भेजता है
निराश हुआ मैं तुमसे मिलकर,
तुम जैसे शब्दों में हो
असल मे बिल्कुल
नहीं हो।
मैं चुप ही रहती हूँ
नहीं कहती कि
हां ,
"कुछ, वैसी ही हूँ।"
असमंजस में रहती हूँ
प्रेम का स्पर्श चुनूँ या चिंतन करूं
तुम्हारे सही या गलत
प्रेमी
होने पर!