दिल्ली

दिल्ली की आवारा सड़कों पर 
जब शाम लावारिस आती है,
ना दिन ये मुसलसल होता है 
ना रात बराबर आती है | 

इस दुनिया ही के दुनियावाले 
दुनिया को जब ठुकराते हैं,
दिल्ली ही के रहनेवाले 
दिल अपना गायब पाते हैं| 

दिन के ढलने से कुछ पहले
जब चाँद ये दस्तक देता है,
रंगीन शहर के रखवाले 
बेरंग कहीं छुप जाते हैं | 

रातों के सियाह सन्नाटे में,
इस घर की चारदीवारी पर 
जब हम एक कलमा लिखते हैं,
अंधे गूंगे और बहरे सब
इसको पढ़ते और सुनते हैं | 

सपनो के साए में बैठा 
ये शहर बिलखता रहता है,
हाँ लोग यहाँ पर बसते हैं
पर कोई यहाँ न रहता है | 

अपने दिल में एक दर्द लिए
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो,
जब लोग यहाँ सब सोते हैं 
तब शहर हमारा रोता है | 

ना कोई इसको सुनता था
ना कोई इसको सुनता है,
हाँ लोग यहाँ कई बसते हैं 
पर इनसान यहाँ नहीं रहता है |
 


तारीख: 29.06.2017                                    राहुल झा









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