दिल्ली की आवारा सड़कों पर
जब शाम लावारिस आती है,
ना दिन ये मुसलसल होता है
ना रात बराबर आती है |
इस दुनिया ही के दुनियावाले
दुनिया को जब ठुकराते हैं,
दिल्ली ही के रहनेवाले
दिल अपना गायब पाते हैं|
दिन के ढलने से कुछ पहले
जब चाँद ये दस्तक देता है,
रंगीन शहर के रखवाले
बेरंग कहीं छुप जाते हैं |
रातों के सियाह सन्नाटे में,
इस घर की चारदीवारी पर
जब हम एक कलमा लिखते हैं,
अंधे गूंगे और बहरे सब
इसको पढ़ते और सुनते हैं |
सपनो के साए में बैठा
ये शहर बिलखता रहता है,
हाँ लोग यहाँ पर बसते हैं
पर कोई यहाँ न रहता है |
अपने दिल में एक दर्द लिए
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो,
जब लोग यहाँ सब सोते हैं
तब शहर हमारा रोता है |
ना कोई इसको सुनता था
ना कोई इसको सुनता है,
हाँ लोग यहाँ कई बसते हैं
पर इनसान यहाँ नहीं रहता है |