इंसान की भूल

पूछा मैंने एक दिन प्रकृति से
क्या बात है आजकल
तुम विचलित सी रहती हो
कभी हसती खिलखिलाती थी
आज कल गुस्से में क्यों दिखती हो
जानती हो तुम्हारे गुस्से की वजह से
क्या हो रहा
इंसान कोरोना नाम की
एक समस्या से जूझ रहा
मौत उसके सिर पर
मंडरा रही
भविष्य की चिंता
उसे सता रही
लगता है जैसे
सबकुछ बिखर सा गया
जीवन जैसे ठहर सा गया
बच्चे भूख से
बिलख रहे
मजदूर तपती धूप में
सुलग रहे
इंसा अब व्याकुल है
आँख में लिए आंसू है
खामोश हो सुनती रही
अब थोड़ी
वह सहज सी हुई
रूंघे गले से स्वर फूटा
आंसुओं का
जैसे सैलाब टूटा
तुम इंसानों ने भी तो
मुझ पर सितम ढ़ाया है
मुझे तुमने अभी तक
ना समझ पाया है
अपनी हसरतों के लिए
मुझे तार तार कर दिया
मेरी हस्ती को तुमने
बर्बाद कर दिया
यदि मेरा भी अस्तित्व
तुम्हें समझ आता
तो कोई भी संकट
तुम्हें न सताता
मुझसे ही तुम हो
और तुमसे ही मैं हूँ
यदि यह जान लो
भूल अपनी मान लो
तो सब कुछ सुधर जाएगा
कोई संकट फिर तुम्हें
ना सताएगा।


तारीख: 11.03.2024                                    वंदना अग्रवाल निराली









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है