वो लॉकडाउन के दो महीने...
एक बंद कमरे की खिड़की से
मैंने देखा, शहर ने जैसे अपनी साँस रोक ली थी।
सड़कों पर पसरा था एक अनजाना, गहरा सन्नाटा,
और गाड़ियों के शोर की जगह,
कभी-कभी बस एम्बुलेंस का सायरन गूँजता था।
एक PG का अकेला कमरा,
दूर शहर में, अपनी ही परछाईं के साथ क़ैद।
ना दोस्त, ना रिश्तेदार, ना कोई पहचानी आवाज़—
बस मोबाइल पर उभरती मौत की गिनती,
और हर पल मन में घुलता एक ठंडा, अनजाना सा डर।
कभी सूखी खाँसी उठती, या जिस्म गर्म लगता,
तो दिल हलक़ में आ धड़कता,
क्या ये वही दस्तक है?
अगर हुआ भी तो—
कौन आएगा पास? इस बंद दरवाज़े के पार कौन झाँकेगा?
दिन में बस दो घंटे खुलता बाज़ार,
जहाँ हर चेहरे पर मास्क था, और हर आँख में गहरा शक।
दो गज़ की दूरी जैसे दो देशों की सरहद बन गई थी,
टमाटर, प्याज़, आटा... इन छोटी-छोटी चीज़ों का मोल
अचानक किसी अधूरे सपने जितना कीमती हो गया था।
शामें दीवारों पर रेंगती थीं,
और रातें और गहरी, और लंबी हो जाती थीं।
अकेलापन एक अनचाहा मेहमान बन,
बिस्तर के पास चुपचाप आकर बैठ जाता,
और कोई गाना, कोई किताब, कोई वेब-सीरीज़
उसकी भारी, ख़ामोश मौजूदगी को हटा नहीं पाती।
घर से दूर होने की टीस, अपनों की चिंता,
और अपनी बेबसी का ये एहसास—
सोशल मीडिया की अंतहीन स्क्रॉलिंग भी
इस बेचैनी पर मरहम नहीं लगा पाती।
तब अक्सर सोचता,
क्या ये क़ैद सिर्फ़ जिस्मों की थी,
या हमारी रूहें पहले से ही इतनी अकेली थीं?
क्या ये लॉकडाउन सिर्फ़ एक बीमारी का नहीं,
हमारे भीतर के गहरे अकेलेपन का आईना था?
दो महीने बीते, खिड़की से फिर देखा—
सड़कें थोड़ी जागी थीं, कुछ आवाज़ें लौटी थीं।
पर दिल के अंदर एक कमरा,
शायद हमेशा के लिए बंद हो गया है,
जहाँ वो अकेलापन अब भी ख़ामोश बैठा है,
एक लॉकडाउन की स्याह याद बनकर।