कुण्डलियां

लगते ढोल सुहावने, जब बजते हों दूर।
चंचल चितवन कामिनी, दूर भली मशहूर।।
दूर भली मशहूर, सदा विष भरी कटारी।
कभी न रहती ठीक, छली, कपटी की यारी।
‘ठकुरेला’ कविराय, सन्निकट संकट जगते।
विषधर, वननृप, आग, दूर से अच्छे लगते।।

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जीना है अपने लिये, पशु को भी यह भान।
परहित में मरता रहा, युग युग से इंसान।।
युग युग से इंसान, स्वार्थ को किया तिरोहित।
द्रवित करे पर-पीर, पराये सुख पर मोहित।
‘ठकुरेला’ कविराय, गरल परहित में पीना।
यह जीवन दिन चार, जगत हित में ही जीना।।

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रहता है संसार में सदा न कुछ अनुकूल।
खिलकर कुछ दिन बाग़ में, गिर जाते हैं फूल।।
गिर जाते हैं फूल, एक दिन पतझड़ आता।
रंग, रूप, रस, गंध, एकरस क्या रह पाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय का दरिया बहता।
जग परिवर्तनशील, न कुछ स्थाई रहता।।

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चलता राही स्वयं ही, लोग बताते राह।
कब होता संसार में, कर्म बिना निर्वाह।।
कर्म बिना निर्वाह, न कुछ हो सका अकारण।
यह सारा संसार, कर्म का ही निर्धारण।
‘ठकुरेला’ कविराय, कर्म से हर दुख टलता।
कर्महीनता मृत्यु, कर्म से जीवन चलता।।

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रिश्ते-नाते, मित्रता, समय, स्वास्थ्य, सम्मान।
खोने पर ही हो सका, सही मूल्य का भान।।
सही मूल्य का भान, पास रहते कब होता।
पिंजरा शोभाहीन, अगर उड़ जाये तोता।
‘ठकुरेला’ कविराय, अल्पमति समझ न पाते।
रखते बडा महत्व, मित्रता, रिश्ते-नाते।।

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लोहा होता गर्म जब, तब की जाती चोट।
सर्दी में अच्छा लगे, मोटा ऊनी कोट।।
मोटा ऊनी कोट, ग्रीष्म में किसको भाया।
किया समय से चूक, काम वह काम न आया।
‘ठकुरेला’ कविराय, उचित शब्दों का दोहा।
भरता शक्ति असीम, व्यक्ति को करता लोहा।।


तारीख: 18.04.2020                                    त्रिलोक सिंह ठकुरेला









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