ढूँढते हैं अर्थ जीवन का, किसी ऊँचे शिखर के पार,
या किसी गहरी पोथी में, छिपा सदियों का कोई सार।
लगता है मकसद कोई है, जो दूर कहीं मुस्काता है,
इस रोज़मर्रा की धुंध से परे, हमें हौले से बुलाता है।
पर लौट के फिर आना पड़ता है, उसी सुबह की दहलीज़ पर,
वही चाय का प्याला खाली, वही फिक्रें नाचें सिर पर।
वही घिसी-पिटी सी राहें, वही दीवारों का सूनापन,
और साँसों पर जम जाती है, एक बोरियत की गहरी फफूँद।
ये ऊब, जो रेशम सी बुने, ख़ामोशी का एक जाल घना,
हर रंग चुरा ले दुनिया का, कर दे हर एहसास मना।
जैसे ठहरा हुआ पानी, ना लहरें जिसमें, ना हलचल,
बस बीत रहा हो चुपके से, बिना बात, बिना अर्थ, हर पल।
तो क्या है जीवन का मकसद? क्या वो दूर चमकता तारा है?
या धूल जमी इन चीज़ों पर, वही अर्थों का पिटारा है?
क्या ये रोज़मर्रा की लड़ाई, ये ऊब का लम्बा सा मरूथल,
इसी रेत में छिपी हुई है, किसी नई कोंपल की हलचल?
शायद बर्तन माँज रहे हाथों की, हर हरकत में मक़सद है,
या इंतज़ार करती आँखों की, हर आहट में मक़सद है।
हर सुबह जाग जाने में, हर रात को थक कर सोने में,
साधारण के सन्नाटे में, ख़ुद के होने में, बस होने में।
शायद ये ऊब वो ख़ालीपन है, जहाँ ज़िन्दगी कुछ कहती है,
ठहर कर सुनने को कहती है, जो भीड़ में अक्सर बहती है।
मकसद कोई मंज़िल न हो, शायद सफ़र का हर मोड़ हो,
इस बोरियत के सागर में, अपने अर्थों की इक होड़ हो।
तो धूल भी है, धुरी भी है, ये ऊब भी है, उद्देश्य भी,
इक साँस में दोनों चलते हैं, ये द्वंद्व भी, निर्देश भी।
जीना शायद बस इतना है, इस धूल को माथे पर धर कर,
हर ऊब भरे पल में खोजना, अर्थ का एक नया अम्बर