क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत

मै गुमनाम रही, कभी बदनाम रही
मुझसे हमेशा रूठी रही शोहरत,
तुम्हारी पहली पसंद थी मै
फिर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत ||

ज़ुबान से स्वीकारा मुझे तुमने
पर अपने हृदय से नही,
मै कोई वस्तु तो ना थी
जिसे रख कर भूल जाओगे कहीं
अंतः मन मे सम्हाल कर रखो
बस इतनी सी ही तो है मेरी हसरत
पर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत||

तुम्हारे प्यार के सागर से
मिल जाते अगर दो घूट
अमृत समझ कर पी लेती
फिर चाहे जाते सारे बँधन छूट
खुदा से मांगती तो मिल गया होता
तुमसे माँगी थी थोड़ी सी मोहब्बत
पर क्यो कहते हो मुझे दूसरी औरत||


तारीख: 01.07.2017                                    शिवदत्त श्रोत्रिय




रचना शेयर करिये :




नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है


नीचे पढ़िए इस केटेगरी की और रचनायें