जब देखती हूँ, बरगद के पेड़ को, गुम हो जाती हूँ मैं
उसकी वृहद गोलाकार घनी, गहरी छाया में,
गिनने लगती हूँ, घने हरे, क्रम में सजे, अनगिनत पत्तों को
गिनते-गिनते, अब थकने लगी हूँ मैं ।
पकड़ती हूँ कस कर,
लम्बी-पतली झुकी-झुकी मजबूत डालियों को
और झूल जाती हूँ मिटाती हूँ थकान मैं ।
डालियों से निकली लम्बी-लम्बी लटों को थामकर
फिर रोकती हूँ खुद को मैं ।
देखती हूँ केन्द्र में गूंथे मजबूत तने को
उसे भी देती है सहारा, ये झुकी हुई डालियाँ,
चूमती है धरती को, भींदती है गोद को, मजबूत सहारा बनती है ।
ये डालियाँ
थके हारे राही की तरह, बरगद के पेड़ के नीचे,
खड़ी सुस्ताने लगी मैं,
ठण्डी हवा के झोंकों से आँखे ये मुंदने लगी
मुंदी आँखों से देखा मैंने,
कितने पंछियों के घरौंदों से पटा यह बरगद का पेड़
ध्यान में आया कितने नन्हें-नन्हें पौधों से पटी है जमीन,
मगन है सब इसकी छाया में
जैसे आँचल पर तारे-मोती जड़े हुए
छोटी-छोटी गर्दन उठाकर, ऊपर की ओर तकते हुए
फिर गौर से देखती हूँ मैं
कितना झुका हुआ है बरगद का पेड़,
मुझे लगा, यह उसकी विनम्र्ता की सीमा है,
पर नन्हे-छोटे पौधे, कुछ भिंचे-भिंचे, घुटे-घुटे से है
सोचती हूँ मैं, ये भी उन ऊँचाईयों को छूना चाहते होंगे ।
ये कब बड़े हो पाते है, विशाल आकार में दब गया
इनका नन्हा सा कद, ठीक से साँस भी नहीं ले पाते है ये
आस है, कहीं से कोई माली आ जाये
खोदे, नन्हें पौधे को और कहीं दूर ले जाये
सही जगह पर अकेले में लगा दे उसे
जहाँ हिस्से की उसे धूप मिले, मिट्टी से मिले खाना-पानी,
सींचेगा उसे जब जल से माली, अंकुरण होगा,
ले लेगा अपना आकार,
अब नन्हा पौधा पेड़ बनेगा, फिर बरगद जैसा हो जायेगा,
उसकी छाया के नीचे भी, मिट्टी में फिर कोई बीज पनप जायेगा
अस्तित्व वहाँ तब उसका होगा
जब नन्हा पौधा बरगद का पेड़ बनेगा ।