जिसे लिखूं मैं कोरे कागज़ पे,
बन जाओ अगर वो कविता तुम,
शब्दों से जिसे पिरो दूं मैं,
बन जाओ अगर वो लड़ियां तुम।
मैं परती जमीं सा रह जाऊं,
आ जाओ तुम बारिश बनकर,
मैं सागर सा गोते खाऊं,
तुम मिल जाओ नदियां बनकर।।
पतंग सरीखा उरुं गगन में,
तुम सूत सरीखी तान बनो,
मैं पर्वत सा ऊंचा हो लूं
तुम चादर हरी जवान बनो।।
मैं तेज़ धार तलवार के जैसा,
तुम सुंदर कोई मयान बनो,
मैं राजा किसी महल बन जाऊं,
तुम ताज चमकती शान बनो।।
तुम छुअन बनो किसी शीतलहरी सी,
मैं सीहरूं काली रातों में,
तुम गरज गरज कर बरसो जब,
मैं भीगुं उन बरसातों में।।
कम्बल बन जाओ मखमल की,
ठीठरूं जिसमें मैं पड़ा रहुं,
वो मोड़ बनो गलियारों की,
जिसे देखन मैं बस मुड़ा रहुं।।
बोतल की मय तुम बन जाओ,
जिसे पीकर मैं मदहोश रहुं,
वो ख़ुशबू भी तुम बन जाओ,
जिसे पाकर मैं बेहोश रहुं।।
तुम फसल बनो मेरे खेतों की,
रक्षक तेरा मैं किसान बनूं,
तुम अन्न बनो उस कोठी की,
जिसे पाकर मैं धनवान बनूं।।
मैं चांद बनूं, तुम धरा बनो,
तेरे चक्कर ही मैं करा करूं,
मैं दिनकर से दीप्ति लेकर,
तेरे अंधियारों से लड़ा करूं।।
मैं आवाज़ों सा जिस्म बनूं,
तुम रूह उसी की लब्ज़ बनो
संगीत बने जिस मुखड़े पर,
तुम धुन जैसी कोई नब्ज़ बनो।।
तुम बन जाओ मेरी तेवर,
मैं ढाल तुम्हारा बन जाऊं,
हर खुशियां होंगी सोहबत में,
तेरे ना को हां गर कर पाऊं।।