आसान नहीं है
पगडंडियों पर चलते रहना
जहाँ दोनों ओर कँटीले झाड़ उग आए हो
और शाम का वक्त़
दिन की रोशनी को क्रमश निगल रहा हो
और वहीं चलने वाले को
अपनी मंजिल का भी पता नहीं हो
तो फिर यह चलते जाना
बीहड़ जंगल में, अकेले
कितनी मुसीबतों को जन्म देता है।
मेरे दोस्त
मैं भी ऐसे ही पगडंडियों पर
चलता रहा हूँ सुबह और शाम
कंटीले झाड़ों का चुभन
हर पल मेरे पाँवों को
लहूलुहान कर देती है
और अनेक वेदनाओं की चीख़
अनसुनी रह जाती है सुनसान पलों में।
राहों में छूटे रक्तिम पदचिह्न
धूल की परतों के नीचे गुमनाम सो गए हैं।
न जाने और आगे
कितनी राहें चलना है
गुज़रते हुए इन पगडंडियों से
कितनी व्यथाएँ झेलनी है
मैं दिशाहीन और पथभ्रष्ट हो चला हूँ
कहाँ-कहाँ और कितनी
ठोकरें खानी है़...
ऐसी स्थितियों में इच्छा-अनिच्छा का
क्या सवाल उठ सकता है
केवल चलते जाना ही
अपनी नियति बन गई है
विकल्प की बात ही यहाँ
कहाँ?