शहर की घुटन

छोटे-से फ़्लैट की तंग बालकनी में
दोपहर की धूप सिरहाने आ ठहरती है,
एक कुर्सी पर बैठे बुज़ुर्ग आँखें मूँद लेते हैं—
आँखें पर्दे के पार जाती हैं,
जहाँ शहर की गलियाँ धुएँ में घुली हैं,
कंक्रीट के जंगल के बीच छिटपुट पेड़
अपनी हरी काया गँवा रहे हैं।

जब वे बाहर निकलते हैं,
आवाज़ों के अंबार उन्हें घेरते हैं—
कारों, बसों, बाइक का शोर,
पल-पल बदलते लाल-हरे सिग्नल,
दुकानों की चमकती खिड़कियों में
नए-नए सामानों की प्रदर्शनी,
हर क़दम पर उपभोक्ता बनने का दबाव
मानो पैरों को भी क़ैद करता है।

न जाने ये शहर किस रफ़्तार में दौड़ता है,
कि कोई चेहरे पर रुककर बात तक नहीं करता;
दो पल थमकर एक “कैसे हो?” पूछने की फ़ुर्सत
किसी के पास नहीं है।

याद आती है गाँव की वो खुली चौपाल,
जहाँ हवा में सरसराते आम के बाग़,
मिट्टी की सौंधी महक, दूर-दूर तक फैले खेत,
और हर मोड़ पर एक परिचित मुस्कान मिलती थी।
यहाँ तो न पार्क हैं, न सधी हुई पगडंडियाँ,
बस धुँधले फ़ुटपाथ, उखड़े पत्थर,
और ज़मीन पर बिखरा उपेक्षा का आसमान।

कहाँ जाएँ? कहाँ बैठें?
हर ओर भीड़ है, पर कोई अपना नहीं,
हर मंज़िल पर रौनक है, पर कोई ठहराव नहीं।
अपार्टमेंट में वापस लौटने का दिल कहाँ करता है?
चार दीवारों में क़ैद एक टीवी, कुछ ख़ाली कमरे,
बंद साँसों जैसा सन्नाटा—
जिसे तोड़ने के लिए बस यादों की खटपट है,
जो कभी गाँव की खुली पगडंडी पर
खुलकर दौड़ा करती थी।

इन बुज़ुर्ग आँखों में
अब भी कहीं गाँव का नीला आसमान बचा है,
पर शहर की घुटन उसे धुँधला कर देती है।
सोचते हैं—क्या उम्र के इस मोड़ पर
वे फिर कभी महसूस कर पाएँगे
खुली हवाओं की छुअन,
धूप की वो नरमाहट, जो बिना शोर
बस गले लगाने को तत्पर होती थी?

शहर की सड़क पर चलते हुए
उनके क़दम भटकते हैं दिशाहीन,
और उनकी यादों में ठहर जाता है
गाँव का धीमा जीवन—
हवा में तैरता सुकून,
धड़कनों में कोई जल्दबाज़ी नहीं,
न कोई कुचलता हुआ शोर, न उपभोक्तावाद का बोझ,
बस एक खुला आसमान
और रहने लायक जगह—
जहाँ इंसान होना ही काफ़ी था।
 


तारीख: 02.07.2025                                    मुसाफ़िर




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