भीड़ के वो कहकहे तो
चेतना का स्वांग है।
तुम अकेले ही रहो,
यह ही सृजन की मांग है।
शीत चंचल चांदनी की
चाह होगी मूढ़ता।
तुम परमतप के मनीषी
हो विभा की उष्णता।
साधना में लीन सारे
अंग व प्रत्यांग हैं।
तुम अकेले ही रहो
यह ही सृजन की मांग है।
उर अकिंचन को सम्हालो,
व्यर्थ साथी मांगता है।
देखकर सबको शयनरत,
ही दिवाकर जागता है।
लक्ष्य ही है शास्त्र सारे।
और विजय वेदांग है।
तुम अकेले ही रहो
यह ही सृजन की मांग है।