स्त्री हूँ मैं


अजीब, अलग, आसान हूँ मैं।
जो जोह लो, वो जमीन
जो न पा सको, वो आसमान हूँ मैं।
बेखौफ, बेलगाम, बेलाग हूँ मैं।
भोर की बयार चुपचाप
और बिजली का औचक प्रहार हूँ मैं।
बदचलन, बदरंग, बदनाम हूँ मैं।
पांडवों की निर्लज्जता
और द्रौपदी का संघर्ष अविराम हूँ मैं।
अजनबी, अनर्थ, अनायास हूँ मैं।
जिन्दगी की तलाश
और मौत के सदा साथ हूँ मैं।
बेरूप, बेनूर, बेजान हूँ मैं।
समाज की सहस्र पाबन्दियाँ
और प्रेम के अकेले एक हाथ में
ज्ञान की इकलौती मशाल हूँ मैं।
अभिमान, अंजाम, आलाप हूँ मैं।
प्रतिस्पर्धा का नीच एक युद्ध
और सफलता का मंत्र महान हूँ मैं।

बेहतर, बेहिसाब, बेमिसाल हूँ मैं।
पपीहे की प्यास अगाध
और स्वाती की बूँद एकमात्र हूँ मैं।
आदि हूँ, अंत हूँ, सृष्टि का षड्यंत्र हूँ।
लिहाज हूँ, लिहाफ हूँ, बेशर्मी का खिताब हूँ।


तारीख: 11.04.2024                                    चेतना शुक्ला









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