सावन भी आ गया, लेकिन अब के बरस सावन का वो जादू नहीं. कुछ अधूरा है. रिमझिम वर्षा की बूंदे भी मन को तृप्त नहीं कर पा रही. हवा तो स्वच्छ है और चारों और हरियाली भी है लेकिन मन अनजाने डर से खौफ में है. कोयल की कुहू-कुहू और पपीहे की पीहू-पीहू भी मन को लुभा नहीं पा रही.चिड़िया की चुन-चुन और भवरे की गन-गन भी बेमानी लग रही है.नाचता है मोर पर चारों तरफ है शोर... इंद्रधनुष अपने रंगो की छटा फैला रहा है पर मन बेरंगी सा घूम रहा है.
मिटटी की सौंधी सौंधी खुशबू अंतर्मन में भय की ज्वाला जगा रही है. गीले-गीले, हरे-हरे पत्ते भी पतझड़ सा प्रतीत हो रहे हैं. पेड़ों पर झूले लगे हैं, पर बिन सखियों के कैसे झूला झूलूं, कैसे पींगे बड़ाऊँ. उदास मन से कैसे गुनगुनाऊँ.
इस बार मायके कैसे जाऊं, कैसे तीज मनाऊं. मायके की याद भी सता रही है, बाबुल भी मिलने को बेचैन है, भाई लाड लड़ाने और सुनी कलाई लिए राखी को तरस रहा है.
किसके लिए सजूं, किसको श्रृंगार दिखाऊं, किसे मन का गीत सुनाऊँ.यौवन का बादल अब दिल नहीं इठलाता है.हाथों में चूड़ियों की खनखन भी सुनाई नहीं दे रही, मेहंदी का रंग तो गहरा है पर मन बिलकुल फीका है.पैरों में पायल है, लेकिन ताल और चाल डगमगा रही है.
स्वाद भी अधूरा, बात भी अधूरी है,.सावन का मेला है लेकिन फिर भी दिल अकेला है.
सावन का महीना और सोलह सोमवार का व्रत, लेकिन शिव के दर्शन कैसे करूँ, कैसे आराधना करूँ... कैसे तुम्हे निहारूं, कैसे जल अर्पित करूँ.
बच्चों की तरह भीगना और कागज़ की नाव बनाना सब कुछ छूट गया है.ये कैसा सावन है, बूंदे बरस रही है लेकिन दिल बिलकुल प्यासा है.
इस बार सावन तूने निराश कर दिया है. इससे अच्छा तो तू न बरसता... कम से कम मेरा मन तो ना तरसता....