बनारस – एक अल्हड़ शहर

पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक ऐतिहासिक जिला है बनारस जो अपनी कई खूबियों के लिए जाना जाता है, जैसे कभी देश के सोलह महा-जनपदों में से एक (तब ये काशी था), कभी धार्मिक राजधानी, और कभी शैक्षणिक राजधानी, आदि-आदि। यहाँ दो चीज़े बड़ी मशहूर हैं एक तो काशी नरेश और दूसरा दक्षिण दिशा। दोनों का अपना-अपना महात्म है, काशी नरेश तो भाई भये राजा जिनके आगे महादेव को छोड़ सब काशी में शीश नवाते हैं दूसरी बची दक्षिण दिशा तो इसके ऊपर तो कई हज़ार ग्रन्थ लिखे जाए तो भी इसका महात्म न चुके फिर मैं तो काशी को ही ठीक से नहीं जनता तो दक्षिण को कितना जानूंगा आप समझ ही सकते हैं। हमारे लिए तो कैंट से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय तक ही बनारस था जो शायद पूरा बनारस शहर भी नही था। 

दक्षिण दिशा के बारे में कहा जाता है की जो कुछ नहीं कर पाता वो दक्खिन (दक्षिण का बनारसी पर्याय) हो लेता है, लेकिन हमारा मानना है की बनारस में है तो कुछ कर ही लेगा। गंगा भी बनारस शहर के दक्षिण में है और उसके घाट भी चाहे वो अस्सी हो या मणिकर्णिका या कोई और घाट हो। मेरा मतलब तो अब आप समझ ही गये होंगे, क्या कहा खाक समझे, तो सही ही समझे, मैं समझा भी यही रहा था मतलब भी सीधा है जिससे कुछ नहीं होता वो इन घाटों को प्यारा हो जाता है चाहे मणिकर्णिका या हरीश्चन्द्र पर जल के या बची राख की भभूति मल के बड़े मस्त कलंदर फिरते हैं इन घाटों पर कोई नंग-धड़ंग कोई टीप-टॉप। देखा जाए तो ये बनारस के घाट न जाने कितनी सभ्यताओ को एक ही धागे में पिरोये हुए है बिना किसी भेद के राजा हो चाहे परजा, कबीर हो या तुलसी, हरीशचन्द्र हों या डोम राजा सबका एक सा आतिथ्य कही कोई भेद नहीं। 

कुछ इतिहास के जानकार कहेंगे कबीर तो गरीब जुलाहे थे और हरीशचन्द्र रहें राजा तो एक से कईसे ! अरे हमारे अक्ल के दुश्मन इतिहासकार भईया अब इ तो आप न जानते हैं, गंगा मईया के तो दोनों ही अपने बच्चे हैं उ काहें भेद करे। यहाँ बड़े संत हुए बड़े महात्मा हुए पर सब रहे दख्हिन्य, घाट पर ही अब चाहे करपात्री और कीनाराम हो या तुलसीदास और कबीरदास सब का ठिकान तो इन घाटों पर ही लगा। जितने बड़े गविया-बजयिया हुए बिस्मिल्ला खान से लेकर छन्नुलाल लाल सब ने यहीं रियाज़ किया इन्हीं घाटों ने उनमें ऐसा राग भरा की दुनिया दीवानी हुई जा रही है। बिस्मिल्ला खान तो घाट पर आरती में सहनाई बजा बजा माई गंगा का आशीर्वाद बटोर लिए। 

हाँ भईया हम सही कह रहे हैं यहाँ कोई भेद नहीं है गंगा माई सब को अपनाती हैं अब हमको ही लेलो तीन साल अप्रवासी पक्षी की तरह यहाँ का जल का पिया पूरी दुनिया का जल हो गया हमारे लिए खारा । अब जब ज़ोर की प्यास लगती है तो दौड़ लगाते हैं और रुकते सीधा काशी में ही हैं । इहाँ हम हो गये पपीहा की पानी तो बस स्वाति का ही पीना है चाहे प्राण जाए या बचे। एक हम ही नहीं हैं इस दौड़ में हमारे जैसे ना जाने कितने पपीहे आते हैं यहाँ, कुछ तो यहीं बस भी गये की कोन रोज़-रोज़ दौड़-भाग करे और सबको अपना लिया बनारस और गंगा ने बिना भेद किये। 

बनारस के दो और नाम हैं काशी और वाराणसी, काशी तो भया पुराना नाम और छानुलाल मिश्र जी कहते हैं वाराणसी इसलिए की वरुणा और अस्सी नदियाँ यहां बहती हैं और बनारस इसलिए की यहाँ का रस हमेशा बना रहता है कभी ख़राब ही नहीं होता | तो बात भी सत प्रतिशत सत्य है यहाँ कुछो हो लोग हमेशा चका-चक रहते हैं। किसी बात का दुख ज्यादा देर तक यहां नहीं टिकता, टिके भी कहाँ से भांग के हरे-भरे गोले टिकने दे तब ना। बनारसियों का बस चले तो भांग को राष्ट्रिय मिठाई, भोजन और न जाने क्या-क्या बनवा लें। आपको यकीं न हो तो हो आइये एक बार महादेव की नगरी में खुद्दय समझ आ जायेगा। यहाँ मुर्दा भी गाज़े-बाज़े के साथ चलता है और बारात भी सही मानों में काशी में ही गीता का मर्म समझा जाता है, “दुःख और सुख दोनों एक सामान हैं” किसी की भी परवाह क्यों करना “खाओ-पियो मस्त रहो” यही है काशी का मूल मन्त्र जो शायद इन्हें चार्वाक ने दिया होगा। बनारस भी उस गुरू-मन्त्र का अक्षरस पालन कर रहा है और छान के भांग घुला के पान मस्त अपने ही अल्हड़पन में हुआ घूम रहा है हिन्दू विश्विद्यालय से लेकर शिव पुर तक। 


तारीख: 07.06.2017                                    मनीष दुबे (ख़याली)









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