लिखने बैठूँ तो
टपकता है लहू कलम से,
शब्द घायल हैं
माहौल ज़ख्मी,
हर घड़ी घट रही है
एक निर्मम कहानी।
बहरी झूठ की गलियों में
अंधा हर सवेरा है,
रीढ़ टूट रही कानून की
और सच का पैर फिसलता है
रिश्वखोरी के चिकने गलियारों में।
इंसानियत ठूँठ है
दिल सस्ता है
जिंदा नरकंकालों का नाच है।