आदमी का अनुपात

 

यह कविता बताती है कि इस ब्रह्मांड की तुलना में इंसान कितना छोटा है। यह जानने के बजाय इंसान खुद को सबसे ताकतवर समझता है और एक-दूसरे से लड़ता रहता है।

पूरी कविता इस प्रकार है:

दो व्‍यक्ति कमरे में कमरे से छोटे - कमरा है घर में घर है मुहल्‍ले में मुहल्‍ला नगर में नगर है प्रदेश में प्रदेश कई देश में देश कई पृथ्‍वी पर अनगिन नक्षत्रों में पृथ्‍वी एक छोटी करोड़ों में एक ही सबको समेटे हैं परिधि नभ गंगा की लाखों ब्रह्मांडों में अपना एक ब्रह्मांड हर ब्रह्मांड में कितनी ही पृथ्वियाँ कितनी ही भूमियाँ कितनी ही सृष्टियाँ यह है अनुपात आदमी का विराट से इस पर भी आदमी ईर्ष्‍या, अहं, स्‍वार्थ, घृणा, अविश्‍वास लीन संख्‍यातीत शंख-सी दीवारें उठाता है अपने को दूजे का स्‍वामी बताता है देशों की कौन कहे एक कमरे में दो दुनियाँ रचाता है।


तारीख: 03.11.2025                                    साहित्य मंजरी टीम




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