रश्मिरथी

 

'कैसी करालता ! क्या लाघव ! कितना पौरुष ! कैसा प्रहार !

किस गौरव से यह वीर द्विरद कर रहा समर-वन में विहार !

व्यूहों पर व्यूह फटे जाते, संग्राम उजडता जाता है,

ऐसी तो नहीं कमल वन में भी कुञ्जर धूम मचाता है ।'

 

'इस पुरुष-सिंह का समर देख मेरे तो हुए निहाल नयन,

कुछ बुरा न मानो, कहता हूं, मैं आज एक चिर-गूढ वचन ।

कर्ण के साथ तेरा बल भी मैं खूब जानता आया हूं,

मन-ही-मन तुझसे बडा वीर, पर इसे मानता आया हूं ।'

 

औ' देख चरम वीरता आज तो यही सोचता हूं मन में,

है भी कोई, जो जीत सके, इस अतुल धनुर्धर को रण में ?

मैं चक्र सुदर्शन धरूं और गाण्डीव अगर तू तानेगा,

तब भी, शायद ही, आज कर्ण आतङक हमारा मानेगा ।'

 

'यह नहीं देह का बल केवल, अन्तर्नभ के भी विवस्वान्,

हैं किये हुए मिलकर इसको इतना प्रचण्ड जाज्वल्यमान ।

सामान्य पुरुष यह नहीं, वीर यह तपोनिष्ठ व्रतधारी है;

मृत्तिका-पुञ्ज यह मनुज ज्योतियों के जग का अधिकारी है ।'

 

'कर रहा काल-सा घोर समर, जय का अनन्त विश्वास लिये,

है घूम रहा निर्भय, जानें, भीतर क्या दिव्य प्रकाश लिये !

जब भी देखो, तब आंख गडी सामने किसी अरिजन पर है,

भूल ही गया है, एक शीश इसके अपने भी तन पर है ।'

 

'अर्जुन ! तुम भी अपने समस्त विक्रम-बल का आह्वान करो,

अर्जित असंख्य विद्याओं का हो सजग हृदय में ध्यान करो ।

जो भी हो तुममें तेज, चरम पर उसे खींच लाना होगा,

तैयार रहो, कुछ चमत्कार तुमको भी दिखलाना होगा ।'


तारीख: 05.11.2025                                    साहित्य मंजरी टीम




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