आज पानी गिर रहा है

 

यह कविता भवानी प्रसाद मिश्रा ने आज़ादी की लड़ाई के दौरान जेल में रहते हुए लिखी थी। उन्होंने यह कविता एक बारिश वाले दिन अपने पिता को याद करते हुए लिखी थी।

 

इस कविता की पूरी कहानी यहाँ पढ़ी जा सकती है:

आज पानी गिर रहा है,

घर नज़र में तिर रहा है,

घर कि मुझसे दूर है जो,

घर खुशी का पूर है जो,

 

घर कि घर में चार भाई,

मायके में बहिन आई,

बहिन आई बाप के घर,

हाय रे परिताप के घर!

 

और पानी गिर रहा है,

घर चतुर्दिक घिर रहा है,

पिताजी भोले बहादुर,

वज्र-भुज नवनीत-सा उर,

 

पिताजी जिनको बुढ़ापा,

एक क्षण भी नहीं व्यापा,

जो अभी भी दौड़ जाएँ,

जो अभी भी खिलखिलाएँ,

 

मौत के आगे न हिचकें,

शेर के आगे न बिचकें,

बोल में बादल गरजता,

काम में झंझा लरजता,

 

आज गीता पाठ करके,

दंड दो सौ साठ करके,

खूब मुगदर हिला लेकर,

मूठ उनकी मिला लेकर,

 

जब कि नीचे आए होंगे,

नैन जल से छाए होंगे,

हाय, पानी गिर रहा है,

घर नज़र में तिर रहा है,

 

पिताजी जिनको बुढ़ापा,

एक क्षण भी नहीं व्यापा,

रो पड़े होंगे बराबर,

पाँचवे का नाम लेकर,

 

पाँचवाँ हूँ मैं अभागा,

जिसे सोने पर सुहागा,

पिता जी कहते रहें है,

प्यार में बहते रहे हैं,

 

पिताजी का वेश मुझको,

दे रहा है क्लेश मुझको,

देह एक पहाड़ जैसे,

मन की बड़ का झाड़ जैसे,

 

एक पत्ता टूट जाए,

बस कि धारा फूट जाए,

एक हल्की चोट लग ले,

दूध की नद्दी उमग ले,

 

एक टहनी कम न होले,

कम कहाँ कि ख़म न होले,

ध्यान कितना फ़िक्र कितनी,

डाल जितनी जड़ें उतनी !

 

इस तरह क हाल उनका,

इस तरह का ख़याल उनका,

हवा उनको धीर देना,

यह नहीं जी चीर देना,

 

हे सजीले हरे सावन,

हे कि मेरे पुण्य पावन,

तुम बरस लो वे न बरसें,

पाँचवे को वे न तरसें,

 

मैं मज़े में हूँ सही है,

घर नहीं हूँ बस यही है,

किन्तु यह बस बड़ा बस है,

इसी बस से सब विरस है,

 

किन्तु उनसे यह न कहना,

उन्हें देते धीर रहना,

उन्हें कहना लिख रहा हूँ,

उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ,

 

काम करता हूँ कि कहना,

नाम करता हूँ कि कहना,

चाहते है लोग, कहना,

मत करो कुछ शोक कहना,

 

और कहना मस्त हूँ मैं,

कातने में व्यस्‍त हूँ मैं,

वज़न सत्तर सेर मेरा,

और भोजन ढेर मेरा,

 

कूदता हूँ, खेलता हूँ,

दुख डट कर झेलता हूँ,

और कहना मस्त हूँ मैं,

यों न कहना अस्त हूँ मैं,

 

हाय रे, ऐसा न कहना,

है कि जो वैसा न कहना,

कह न देना जागता हूँ,

आदमी से भागता हूँ,

 

कह न देना मौन हूँ मैं,

ख़ुद न समझूँ कौन हूँ मैं,

देखना कुछ बक न देना,

उन्हें कोई शक न देना,

 

हे सजीले हरे सावन,

हे कि मेरे पुण्य पावन,

तुम बरस लो वे न बरसे,

पाँचवें को वे न तरसें ।


तारीख: 02.11.2025                                    साहित्य मंजरी टीम




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