अक्सर एक व्यथा

 

यह सर्वेश्वर दयाल सक्सेना द्वारा लिखी गई यात्रा पर एक हिंदी कविता है और इसे कुणाल झा ने सुनाया है।

पूरी कविता इस प्रकार है:

अक्सर एक व्यथा / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

 

अक्सर एक गन्ध

मेरे पास से गुज़र जाती है,

अक्सर एक नदी

मेरे सामने भर जाती है,

अक्सर एक नाव

आकर तट से टकराती है,

अक्सर एक लीक

दूर पार से बुलाती है ।

मैं जहाँ होता हूँ

वहीं पर बैठ जाता हूँ,

अक्सर एक प्रतिमा

धूल में बन जाती है ।

 

अक्सर चाँद जेब में

पड़ा हुआ मिलता है,

सूरज को गिलहरी

पेड़ पर बैठी खाती है,

अक्सर दुनिया

मटर का दाना हो जाती है,

एक हथेली पर

पूरी बस जाती है ।

मैं जहाँ होता हूँ

वहाँ से उठ जाता हूँ,

अक्सर रात चींटी-सी

रेंगती हुई आती है ।

 

अक्सर एक हँसी ठंडी हवा-सी चलती है,

अक्सर एक दृष्टि कनटोप-सा लगाती है,

अक्सर एक बात पर्वत-सी खड़ी होती है,

अक्सर एक ख़ामोशी मुझे कपड़े पहनाती है ।

मैं जहाँ होता हूँ वहाँ से चल पड़ता हूँ,

अक्सर एक व्यथा यात्रा बन जाती है ।


तारीख: 04.11.2025                                    साहित्य मंजरी टीम




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