चलते रहे

 

यह कविता उन मज़दूरों की हालत बताती है जो मुंबई, दिल्ली जैसे बड़े शहरों से पलायन करने पर मजबूर हैं। यह दिल को छू लेने वाली कविता सुजाता गुप्ता ने लिखी है और मशहूर एक्टर वीरेंद्र सक्सेना ने इसे पढ़ा है। आप पूरी कविता यहाँ पढ़ सकते हैं: Click here

वे मजबूर थे , मजदूर थे, लेकिन मजबूत थे, तभी तो हर हाल में चलते रहे !

मन में रोजी का सवाल लिए चलते रहे!

सुनहरे कल को लेकर देखे टूटे सपनों का भार लिए चलते रहे !

छूटते रोजगार का हिसाब लिए चलते रहे!

वर्तमान से परेशान, भविष्य से अंजान, चलते रहे !

बच्चों को काँधे पर बिठाए, पीठ पर लटकाए, साइकिल पर सुलाए, सूटकेस पर रिड़काए, चलते रहे!

चिलचिलाती धूप में, उमस भरी अधेरी रात में, तूफानी बरसात में, चलते रहे!

कच्ची सड़क पर, पक्के हाईवे पर, रेलवे ट्रैक पर, चलते रहे!

कभी प्यासे रहकर, कभी पानी पीकर, कभी भूखे पेट, कभी रूखी रोटी, कभी नमक मिला भात खाकर चलते रहे!

कभी पालतू जानवर, बच्चे, राशन, कभी बर्तन, तो कभी गठरी सिर पर उठाकर, चलते रहे!

कभी ट्रक में, कभी टैंकर में, कभी रिक्शा में, कभी बैलगाड़ी , कभी ठेले पर चलते रहे!

बच्चों को गोदी में, कभी रेहड़ी पर, कभी फुटपाथ पर सुलाकर चलते रहे !

कभी टूटी चप्पल, कभी नंगे पैर, कभी घाव से, रिसते पाँव कभी पैर में प्लास्टिक बांध चलते रहे !

जवान-बूढ़ी, ब्याहली, बीमार, गर्भवती, तो कभी जच्चा, औरतों संग चलते रहे !

कभी लाठी, कभी डंडे, कहीं डाँट, तो कहीं दुत्कार खाकर चलते रहे!

कभी अखबार कभी फेसबुक, व्हाट्सएप , ट्विटर पर सुर्खियां बन, कविताओं, किस्सों का मुद्दा बन, चलते रहे !

लिखने वाले थक गए लेकिन सदी की सबसे बड़ी त्रासदी की जीती जागती कहानियां बनकर , आने वाली नस्लों के लिए इतिहास की किताबों में छपने को बेऱकरार, चलते रहे !

क्योंकि उन्हें विश्वास है, अपने देश की व्यवस्थाओं पर, कि इस प्रकार चलकर जब वे जिंदा घर पहुंचेंगे, तो गाँव, परिवार के साथ, चावल , चना मुफ्त मिलेगा !

और क्या चाहिए होता है भला, किसी जीते-जागते इंसान को जीने के लिए ? बताओ तो ज़रा ?


तारीख: 31.10.2025                                    साहित्य मंजरी टीम




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