मैं तुझे फिर मिलूँगी कहाँ कैसे पता नहीं शायद तेरे कल्पनाओं की प्रेरणा बन तेरे कैनवास पर उतरुँगी या तेरे कैनवास पर एक रहस्यमयी लकीर बन ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी मैं तुझे फिर मिलूँगी कहाँ कैसे पता नहीं या सूरज की लौ बन कर तेरे रंगों में घुलती रहूँगी या रंगों की बाँहों में बैठ कर तेरे कैनवास पर बिछ जाऊँगी पता नहीं कहाँ किस तरह पर तुझे ज़रूर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी जैसे झरने से पानी उड़ता है मैं पानी की बूंदें तेरे बदन पर मलूँगी और एक शीतल अहसास बन कर तेरे सीने से लगूँगी मैं और तो कुछ नहीं जानती पर इतना जानती हूँ कि वक्त जो भी करेगा यह जनम मेरे साथ चलेगा यह जिस्म ख़त्म होता है तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है पर यादों के धागे कायनात के लम्हें की तरह होते हैं मैं उन लम्हों को चुनूँगी उन धागों को समेट लूंगी मैं तुझे फिर मिलूँगी कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!