मतला:
दिल इतना बेचैन क्यों है, क्या फिर नई बंदिश चाहता है,
पिछले ज़ख़्म अभी हरे हैं, ये फिर कैसी साज़िश चाहता है।
शेर 2:
अभी तो आँसुओं का सैलाब भी थमा नहीं है आँखों में,
फिर भी ये दिल नादान मेरा, नई कोई ख़्वाहिश चाहता है।
शेर 3:
तन्हाई के सहरा में भटकती हैं उदास साँसें मेरी,
दिल फिर से किसी नग़्मे की ताज़ा पेशकश चाहता है।
शेर 4:
समझाया बहुत इस दिल को, ज़ख़्मों को न कुरेदो अब,
पर ये नादान सुनता नहीं, फिर वही आज़माइश चाहता है।
शेर 5:
शायद यही फ़ितरत है इसकी, दर्द में भी मुस्कुराता है,
गिरकर संभलने का शौक़, ये कैसी फरमाइश चाहता है।
मक़्ता:
ज़िंदगी की किताब में कुछ पन्ने अभी भी खाली हैं 'मुसाफ़िर'
दिल उन पर क्या फ़िर से कोई , नई दास्तां लिखना चाहता है।