ज़िन्दा हैं तो मुँह खोलते क्यूँ नहीं
बात ज़ुबान पे है बोलते क्यूँ नहीं
नींद चाहिए अगर आँखों को तो
ख़्वाब संजीदा पालते क्यूँ नहीं
चुप्पी भी तो कत्ल कर जाती है
अपने आप को तौलते क्यूँ नहीं
नहीं कर पा रहे हैं कुछ भी फिर
सिंहासन से तो डोलते क्यूँ नहीं
जहर बो दिया हरेक फुलवारी में
फ़िज़ा में चाशनी घोलते क्यूँ नहीं