उसे दिल से अपने भुलाने चला हूँ
नया ज़ख्म फिर दिल पे खाने चला हूँ
न हो यकीं मेरी बातों का उसको
ग़मे-दिल उसे क्यूँ सुनाने चला हूँ
न मानेगा वह जानता हूँ उसे मैं
मग़र फिर भी उसको मनाने चला हूँ
रखो अपनी तुम बादशाहत सलामत
फकीरी में मैं ऐश पाने चला हूँ
बचाता रहा सालभर चंद पैसे
उन्हें लेके माँ को घुमाने चला हूँ
जहाँ से मैं लौटा हूँ हर बार खाली
उसी दर पे मैं सिर झुकाने चला हूँ
पुराने ख़तों की ‘पवन’ कतरनों को
मैं मिट्टी में गीली दबाने चला हूँ।