वो शाम लाने की ज़िद न करो

यूँ जहन्नुम तलक-ज़ीस्त उलझी पड़ी है,
अब हसीं पल के इंतजाम की ज़िद न करो ।

जानता हूँ, तुझ बिन मसर्रत नहीं हैं घड़ियाँ ,
पर फिर से वो शाम लाने की ज़िद न करो ।।

न करो इबादतों का दौर फिर से शुरू,
फिर से अपना सबकुछ हार जाने की ज़िद न करो।

इसी सिलसिले में हुए हैं बर्बाद इस क़दर,
बेहिसाब गहरा दरिया पार करने की ज़िद न करो ।।

मुहब्बत भी शब्-ए-तीरगी है सनम,
इस तमी में ज़िया लाने की ज़िद न करो ।

इश्क़ तो अब भी बेहिसाब है तुमसे,
पर फिर से मीठे ज़रर की ज़िद न करो।।

ये ज़माना बड़ा जाबित है निर्ज़-जमीं की तरह,
अब बे-तासीर मुहब्बत-ए-बरसात की ज़िद न करो ।

यूँ बिखरकर खुद को समेटना, मोजज़ा तो नही ,
चलो तो, सब्रोकरार की ज़िद न करो ।।

तेरे तबस्सुम से गुलशन हुआ करता था घराना,
फ़क़त दर्द में मुस्काने की ज़िद न करो ।

जला दिए हैं हमने ख़त जो तेरे इस्बात थे,
उस ख़ाक को भी समेटने की ज़िद न करो ।।

मानो सनम,
उस उलझी शाम को पाने की जिद न करो,
जो न है आश्ना, उसे फिर से लाने की ज़िद न करो ।

इश्क़ के समंदर में यूँ तूफ़ाँ बहुत आते हैं,
उसके साहिल पे मकां बनाने की ज़िद न करो ।।
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जीस्त-जिंदगी । मसर्रत-खुश । 
शब्-ए-तीरगी-अँधेरी रात ।
ज़िया-उजाला ।
ज़रर-घाव । जाबित -कठोर ।
निर्ज़-बंजर । बे-तासीर-व्यर्थ ।
मोजज़ा-जादू । तबस्सुम-मुस्काना ।
इस्बात-प्रमाण,तथ्य । आश्ना-अपना ।


तारीख: 17.06.2017                                    आदित्य प्रताप सिंह‬




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