छन-छन के हुस्न उनका यूँ निकले नक़ाब से।
जैसे निकल रही हो किरण माहताब से।।
पानी में पैर रखते ही ऐसा धुआँ उठा।
दरिया में आग लग गई उनके शबाब से।।
जल में ही जल के मछलियाँ तड़पें इधर-उधर।
फिर भी नहा रहे न डरें वो आज़ाब से।।
तौहीन प्यार की है करे बेवफ़ा से जो।
धोका है आस रखना वफ़ा की जनाब से।।
जी भर पिलाई साक़ी ने कुछ भी नहीं चढ़ी।
हाथों से उनके पीते नशा छाया आब से।।
बचपन की याद फिर से हमें आज आ गई।
जब से मिले हैं फूल ये सूखे किताब से।।
घुट-घुट के जीना प्यार में अच्छा नहीं 'निज़ाम'।
खुलकर जियो ये ज़िंदगी अपने हिसाब से।।