लापता काफिलों की एक कश्ती

लापता काफिलों की एक कश्ती को किनारों से
बचाकर लाए हैं बमुश्किल हस्ती को किनारों से

बुनियादों के सिवा कुछ भी बाकी नही बचा था
दरियाफ्त किया जब हमने बस्ती को किनारों से

झूठे दरिया का सर भी आसानी से नही झुकता है 
टकराते देखा है हमने हक परस्ती को किनारों से

सरपरस्तों की सरपरस्ती पर पक्का यकीं न कर
लौटते देखा है अक्सर सरपरस्ती को किनारों से

जरा जरा सी बात पर भरोसे टूट गए ऐ"आलम"
टूटते देखा है हजारों बार ग्रहस्ती को किनारों से


तारीख: 04.02.2024                                    मारूफ आलम









नीचे कमेंट करके रचनाकर को प्रोत्साहित कीजिये, आपका प्रोत्साहन ही लेखक की असली सफलता है