झोपड़े का मेहमान(कोसी के धार पर-1)

“ यात्री गण कृपया ध्यान दें, गाड़ी नंबर 13246 कैपिटल एक्सप्रेस जो बरौनी, कटिहार, न्यू जलपाईगुड़ी होते हुए कामख्या तक जाएगी, प्लेटफार्म नंबर १ पर आ रही है”

पटना जंक्शन पर यह उद्घोष सुनते ही चिन्मय प्लेटफार्म न. १ की तरफ बढ़ा। थोड़ी ही देर में ट्रेन आ गयी और वह अपनी सीट पर जाते ही सो गया । मुंबई से पटना के बीच 2 घंटे की हवाई यात्रा और पटना स्टेशन के वातानुकूलित विश्रामालय में ४ घंटे के इंतज़ार ने उसको बहुत थका दिया था ।

करीब एक महीने पहले की बात है । मुंबई विश्वविद्यालय के सोशल साइंस विभाग के दो तीन छात्र अपने ऑटम प्रोजेक्ट को लेकर परेशान थे । कोर्स पूरा करने के लिए सभी छात्रों को एक प्रोजेक्ट करना जरुरी था । चिन्मय यूँ तो बहुत मेधावी छात्र था लेकिन अबतक अपना प्रोजेक्ट के चयन नही कर पाया था । उसे कुछ सूझ भी तो नही रहा था । तभी साथ में बैठे उसे दोस्त मनीष ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा-“ भाई सबसे अच्छा होगा की किसी अनएक्स्प्लोरड ( unexplored) कल्चर को एक्स्प्लोर करो ।”

“जैसे?”
“जैसे की मेरी जगह । कोसी क्षेत्र- बिहार के मिथिलांचल से जुड़ा एक हिस्सा ।”

“अरे! उसमे क्या नया है ? सबको तो पता ही है । भोजपुरी बोलते हो, और क्या बोलते हैं उसे, वो लिट्टी चोखा खाते हो । हमका सब मालूम ।”

मनीष हंस पड़ा । अगले 20-25 मिनट तक उसने चिन्मय को समझाया की कैसे मिथिलांचल बिहार के अन्य क्षेत्र से अलग है । वहां भोजपुरी नहीं मैथिलि बोली जाती है, वहां के लोग प्रायः बहुत गरीब होते हैं, खान-पान भी थोडा अलग है वगैरह । धीरे धीरे चिन्मय को समझ में आया कि उसे तो कोसी या मिथिलांचल क्षेत्र के बारे में कुछ भी नही पता था । उसने निश्चय किया कि वो मिथिलांचल की संस्कृति पर ही प्रोजेक्ट करेगा । 

करीब 10 दिनों तक इन्टरनेट के जरिये रिसर्च करने के बाद उसने निश्चय किया की वह मिथिलांचल में रहकर वहां के कुछ तौर तरीकों का भी अध्ययन करेगा । मनीष यूँ तो उसी क्षेत्र से था लेकिन पिछले 20 साल से उसका पूरा परिवार पटना में रहता था । हाँ उसके एक मामाजी थे जो अपने परिवार के साथ सहरसा जिले के भगवानपुर नामक गाँव में रहते थे । तय यह हुआ कि चिन्मय 2 दिन मनीष के मामाजी के घर पर रूककर उन्ही के साथ मिथिला की संस्कृति को समझेगा ।

सवेरे के दस बजे थे । मुखिया जी के मचान पर चाय-पान के साथ ताश का दौर चल रहा था । मामाजी, जिनका नाम भोला झा था, भी वहीँ थे । वो सोच में थे की अभी तो चिन्मय ने कटिहार में ट्रेन से उतरकर सौरबाजार के लिए बस भी ले लिया होगा । सौरबाजार ही इस गाँव के लिए सबसे नजदीकी बाज़ार था और सबसे करीबी बस अड्डा भी । सोच रहे थे की सौर बाज़ार से कोई रिक्शा या टमटम लेकर आ जायेगा। बातों बातों में सबको चिन्मय की आने की खबर मिली । 

मुखियाजी बोले-

“ अरे भोला ! पगला गए हो क्या ? भागिने(भांजे) को लेने नहीं जाओगे । अतिथि सत्कार ही तो एक चीज़ है जिसमे मैथिल लोगों से ज्यादा अमीर कोई नहीं । फिर समधी, जमाई, और भगिने से बढ़कर भी कोई अतिथि होता है क्या? एक काम करो – सौर बाज़ार तक मैं अपनी गाड़ी भेज दूंगा, तुम जाकर उसे ले आओ । और भी किसी चीज़ का दिक्कत हो तो बोलना जरुर ।”

गाँव में पाहून किसी एक परिवार का नही बल्कि पूरे गाँव का होता है । गाँव में सबको पता था की भगिना आ रहा है, वह भी पहली बार मुंबई से । इधर 12 बजे भोला झा बस अड्डे को निकला मुखिया जी की गाड़ी लेकर और उधर पड़ोस के घर से एक नया चादर और तकिये का खोल आ गया । हाल में ही उनकी बहु दुरागमन (गौना) होकर आयी है सो नए चादरों की कोई कमी नहीं है । अब पाहून आया है, जब नया चादर बिछ सकता है तो उसको पुराने फटे चादर पर सोने क्यों दे । 

पाहून के स्वागत की तयारी भी की जाने लगी । रामबाबू झा के घर से कटहल की तरकारी आ गयी । दीना झा की पत्नी जाते जाते तरुआ बनाने के लिए तिलकोर(एक तरह की लता जिसके पत्तों को पिसे हुए चावल के साथ छान कर मिथिलांचल में बड़े चाव के साथ खाया जाता है ) के पत्ते दे गयी । भोला झा की पत्नी भी बेसन की बरी बनाने में जुट गयी। गुरु प्रसाद बाबु के घर से दर्जन भर मालभोग केला आ गया तो दिवाकर झा के घर से भी 3-4 तरह के पापड -तरुए आ गए । मुन्ना झा के द्वार पर 3 भैसें लगती थी, सो उन्होंने भी रसोई में कहकर दूध चूल्हे पर चढवा दिया खीर बनाने के लिए ।

करीब 1 बजे चिन्मय भोला झा के द्वार पर उतरा । उतरते ही उसने मामा मामी के पाँव छुए । मनीष ने कुछ रिवाज़ तो सिखा कर भेजा था अपने दोस्त को । चिन्मय ने अपने चारो और देखा । उसके लिए बड़ा नया सा अनुभव था । पहली बार वह किसी कच्चे घर में बैठा था । बड़ा सादा सा था सब कुछ । मिटटी के दीवार जिसपर बाहर के तरह कुछ चित्रकारी की गयी थी । आँगन में दूसरी तरफ रसोई घर था जिसके बाहर कुछ जलावन रखे हुए थे । एक पुराना सा पलंग था जिसपर एक नयी चादर बिछी थी । एक दो कुर्सियां रखी थी पास में । जितने भी सामान थे वो मूलभूत जरूरतों से जुड़े ही लग रहे थे । भोला झा ने एक पुराना सा कुर्ता पहन रखा था जिसमे एक दो छोटे छेद थे । मामीजी की सूती साड़ी भी उनकी गरीबी को भी प्रतिबिंबित कर रही थी ।

चिन्मय ने सोचा की कैसे अजीब लोग हैं, मेहमान के आने पर तो कम से कम थोड़े ढंग के कपडे पहन लेने चाहिए ।

मामीजी ने पूछा-“ खाना परोस दें क्या ?”
घर की हालत देखकर चिन्मय को अच्छे खाने की कोई खास उम्मीद तो थी नही लेकिन वो भी थका सा था । सोचा जो मिले खाकर थोडा आराम कर लिया जाये।

“ हाँ मामी । खाना लगा दीजिये । नींद भी लगी है । खाकर सोऊंगा थोड़ी देर ।” “आहाहा बेचारा । उतना दूर से आये है । कोई मामूली बात थोड़े है । थक गए होंगे । बैठ जाइए आप अभी खाना लाते हैं ।”

खाना आया और उसे देखकर चिन्मय को ऐसा लगा जैसे उसकी सारी थकावट चली गयी हो और भूख कई गुना बढ़ गयी हो । इतनी वेरायटी तो किसी 5 स्टार होटल में ही मिल सकती है । चावल-दाल, पापड़, 4-5 प्रकार के पकोड़े, आलू भुजिया, भिन्डी का भुजिया, कटहल की सब्जी, दही, रसगुल्ला, खीर और न जाने क्या क्या । किसको खाया जाये और किसको छोड़ा यही समझ में नही आ रहा था चिन्मय को । खाना बना भी बेजोड़ था । चिन्मय का तो देख कर ही मन भर गया । मामा मामी आग्रह पर आग्रह कर रहे थे और इधर चिन्मय का जैसे पेट फटने को हो ।

“ नही मामी हो गया। पेट भर गया ।”
“ अरे ये मिथिलांचल की खासियत है । तिलकोर के पत्ते का तरुआ। ये तो खाना ही पड़ेगा ।”

झोपड़े का मेहमान (कोसी के धार पर-1)

खाना खाने के बाद चिन्मय ने हाथ मुह धोया और सीधे बिस्तर पर कूद पड़ा। तभी मामाजी पान लेकर कमरे में आये । चिन्मय पान नही खाता था । “ नही मामा । पान नही खाता मैं।”

“अरे पान तो पाचक है । ये तो मुह में ही रह जायेगा । ऊपर से ये ही तो मिथिला की शान है - 

कन्हा(कन्धा) पर गमछी मुख में पान, तब देखू मिथिला के शान”

आखिर मामाजी चिन्मय को पान खिला कर ही माने । चिन्मय भी सो चुका था। शाम में मामाजी चिन्मय से पहले ही सोकर उठ चुके थे । घूमते घूमते काली मंदिर के सामने पोखर पर पहुंचे । मुखिया जी भी वहीँ थे। 

“ और भोला ? कहाँ है भगिना ? ठीक से खिलाये पिलाये न ?” 
“ हाँ मुखिया जी । अभी सो रहा है । बहुत थका हुआ है न । उतनी दूर से जो आया है ।”

पोखर से सट कर ही अक्लेश सिंह खड़ा था । ये पोखर उसी का था ।
“अरे भोला भाय ! सुने आपके भागिने का दोस्त आया है । कहाँ है ?” “हाँ आया तो है पर अभी सोया हुआ है ।”
“ अरे सुनिए न । कल भोरे भोर आ जाइए न इधर । कल माछ मारने वाले हैं । रेहू खिला दीजिये पाहून को “
“ हाँ ठीक है “

शाम कुछ और ढली तो भोला झा चिन्मय को घुमाने बाहर ले आये । गाँव के प्रमुख लोगों से मिलाया । उसे चिन्मय बड़े उत्सुकता से गाँव के तौर तरीके के बारे में सुन रहा था । भोला झा भी उसे एक एक बात बहुत बारीकी से बता रहा था । जब अँधेरा हुआ तो भोला उसे काली मंदिर के संध्या आरती में ले गया । हलाकि चिन्मय को भगवान में विश्वास नही था और न ही कभी उसने पूजा पाठ और धार्मिक कर्मकांडों में रूचि दिखाई थी लेकिन पता नही क्यों यहाँ उसे अजीब शांति मिल रही थी । 

मुंबई में कंक्रीट के जंगल में कृत्रिम ध्वनियों ने उसके कानों को कुछ ऐसा कर दिया था की मंदिर के शंख, घंटियों के शोर में भी उसे एक सहज सुकून का अनुभव को रहा था । वो तो यहाँ कुछ देर और बैठना चाहता था लेकिन मामाजी ने कहाँ की अब चलना चाहिए । खाना पीना खाकर बातचित किया जायेगा ।

रात हो चुकी थी । उम्मीद के मुताबिक़ इस बार भी चिन्मय के सामने थाली के साथ साथ छोटे-छोटे कटोरियों की लम्बी श्रृंखला बिच गईं । फिर से वही दुविधा, क्या खाया जाये क्या छोड़ा जाये । फिर से खाने के लिए वही आग्रह । और इस बार तो एक दो चीज़ों को छोड़ कर सब ऐसी चीज़ें थी जो दोपहर के खाने की थाल में नही दिखी थी । सबसे अच्छी जो चीज़ लगी उसे खाने में वो थी मखाने की खीर। शाम को ही पड़ोस से मखाना आया था पाहून के लिए । चिन्मय के लिए ये बिलकुल नया जायका था जो इससे पहले उसने कभी चखा नही था ।

“मामी लेकिन एक बात तो कहनी पड़ेगी । खाने की इतनी वैरायटी !! मतलब पूरा दिन बस खाना ही बनती रहती हैं क्या आप ? इतनी तकलीफ क्यों मेरे लिए”

“कैसी बात करते हैं आप । भागिने को खाना खिलाने में कैसा तकलीफ? आपको अच्छा लगे खाना बस इसी में हम खुश हैं ।” “ अच्छा क्या जबरदस्त था”

रात और बढ़ी तो सब सोने को गए । सोते-सोते चिन्मय सोच रहा था की कितने भले लोग हैं । इनकी हॉस्पिटैलिटी तो बड़े बड़े इंस्टिट्यूट को सीखनी चाहिए । कितना पैसा खर्च हुआ होगा इन सब में । मनीष ने कैसे कहा था की ये लोग गरीब हैं । क्या सत्कार किया । किसी गरीब आदमी के बस का कहाँ ये सब ।

सवेरा हुआ तो सबसे पहले भोला पोखर पर पहुंचा । वहां से 2 रेहु मछली ले आया । कुछ 3 किलो के आसपास होगा । अपनी पत्नी को माछ बनाने का जिम्मा देकर चिन्मय को गाँव घुमाने ले चला । जाते जाते चिन्मय ने पूछ लिया की इतनी मछली हमलोग खा लेंगे क्या ? इतने आसानी से कैसे मिल जाता है ये सब यहाँ । वो भी इतने सवेरे सवेरे । 

मामाजी ने जवाब दिया – “ हा हा ! इस सब की कोई कमी नहीं है यहाँ । हमारे मिथिला में तो यही है कि पग पग पोखर माछ मखान” भोला झा चिन्मय को गाँव दिखाते दिखाते अपने खेत के तरफ ले गए ।

“अरे इन खेतों में आपने कुछ लगाया क्यों नही है । और ये थोडा पानी भी भरा है । किसी खास तरह के फसल की तयारी है क्या ?”- चिन्मय ने पुछा ।

“ नही बेटा । इस ये बाढ़ का पानी था । पानी भरा था खेत में तो सारा फसल बर्बाद हो गया । खरीफ तो निकल गया अब रबी में ही कुछ उपज पायेगा इसमें ।”

“ बाढ़ ! यहाँ बाढ़ आयी थी इस साल ?”- चिन्मय ने विस्मित होकर पुछा ।

“ इस साल क्या । बाढ़ तो यहाँ हर साल ही आता है । फसल खराब होना तो यहाँ कोई बड़ा बात नही है । कितने बार तो गाय भैस बाढ़ में बह गया है ।”

“ तो क्या सरकार कुछ नही करती इसके लिए ?”

“ सरकार कहाँ कुछ करती है । अधिक हुआ तो 1 मन अनाज और 1-2 हजार रुपया दे देती है । वैसे सरकार भी क्या करेगी । उनके बस का क्या है । सब कोसी मैया की इच्छा है । जब मन चाहे जीको मन चाहे लील लेती है । ये सब तो कुछ नही । 2008 में जो बाढ़ आया था न वो देखते तो होश उड़ जाते । अक्टूबर तक घुटना भर पानी लगा था । सौरबाजार तक का रास्ता कट गया था धार में । 

छोटा छोटा चीज़ के लिए नाव पर जाना पड़ता था । मुखिया जी का बेटा भी तो उसी में डूबा न । बेचारे मुखिया जी । एक्के ठो तो बेटा था । ऊ भी 4 बेटी पर । पर सब विधाता का खेल । हम सब तो कोसी मैया के दया पर जिन्दा हैं । वही दाना पानी देती है वही दाना पानी छिनती भी है। सब ई सब पाप है । बोलो बेटा यही सब तो कलयुग का निशानी है न”

मिथिलांचल में कौन है जिसने बाढ़ की मार न खायी हो ? भोला झा भी भावुक हो उठा। पर किया ही क्या जा सकता था । खैर 2-3 घंटे तक चिन्मय खूब घूमा। जगह जगह अपने कैमरे को भी कष्ट देता रहा । उसने भोला से तरह तरह के सवाल पूछे और भोला ने उसे एक एक सवाल का विस्तार पूर्वक उत्तर दिया । 

करीब 12 बजे के आस पास दोनों वापस घर पहुचे । रेहू माछ की सुगंध ने चिन्मय की जीभ में पानी ला दिया । कल तक थोड़ी सी जो हिचक थी वो आज दूर हो चुकी थी । वैसे यही तो एक मेज़बान की परख है की वो अपने मेहमान को कितनी जल्दी और किस हद तक सहज कर पाता है । चिन्मय ने आज जम कर खाया । वो तो रेहू का दीवाना बन गया था । उसे भरोसा नही हो रहा था की बस नमक हल्दी और लहसन के लेप में डालकर और सरसों तेल में छान कर मछली में इतना स्वाद आ सकता है । 

खाते खाते उसने कई बातें पूछी, जैसे कि आप पक्के का घर क्यों नहीं बनवाते, घर में टीवी क्यों नही लगवाते, सौर बाजार तक जाना आना तो लगा रहता है तो एक मोटर साइकिल क्यों नही ले लेते । लेकिन हरेक प्रश्न का भोला झा के पास एक ही जवाब था कि पैसा कहाँ है । उसने बताया की गाँव में 3-4 लोग जैसे अक्लेश सिंह, मुखिया जी आदि थोड़े अमीर हैं लेकिन प्रायः सभी लोग बहुत गरीब हैं । सालों भर दोनों वक़्त खाना मिले ये ही बहुत है उनके लिए।

भोला झा ने बताया की पहले उनके पास भी बहुत ज़मीन थी । आम के बगीचे थे । लेकिन एक से दो हुए, दो से चार । जमीन और बगीचे बटते गए और अब तो इतना ही बचा है की किसी तरह गुजरा हो जाये । खैर शाम हुई और फिर रात । चिन्मय कुछ और जगहों पर घूमा और कुछ और लोगों से मिला। रात को सोते समय एक अजीब सा लगाव महसूस करने लगा था चिन्मय ।

अगली सुबह उसे निकलना था । सौर बाजार से बस से कटिहार । वहां से बागडोगरा तक के लिए ट्रेन फिर बागडोगरा से मुंबई तक की हवाई यात्रा । सवेरा हुआ, चिन्मय जाने को तैयार हुआ । देखा मामी एक बड़ी थैली लेकर आयी हैं । थैली मामी ने चिन्मय को सौंप दी ।

“क्या है इसमें ?”
“कुछ नही । थोडा सा सनेस है । थोडा सा ठकुआ, अनरसा और पिरिकया ।” “इसकी क्या जरुरत थी “
“क्या बात करते हैं ? भगिना को खाली हाथ भेज देंगे”

कुछ समय के लिए चिन्मय को लगा की यहीं रुक जाये लेकिन वक़्त कहाँ था। मुंबई की फ्लाइट पर वह लगातार वो सोचता रहा- कैसे अच्छे लोग हैं । कितना सत्कार करते हैं । कितना खर्च करते होंगे । पर ये कहाँ से करेंगे । ये तो गरीब लोग हैं । हर साल बाढ़ की मार झेलते हैं । आमदनी का जरिया भी क्या है ? खेती और क्या । कितना ही कम लेते होंगे खेती से । 

लेकिन पैसे नहीं तो फिर इतनी ठाठ कैसे ? खाने में इतना कुछ ? दूध दही की कोई कमी नही । मेहमान को लाने छोड़ने के लिए गाड़ी । इतने तरह के पकवान वो भी इतनी जल्दी । जाते वक़्त मेहमान को इतना कुछ देते भी हैं। इतना कुछ तो शहर में रहने वाले अधिकतर लोग नही कर पाते । इतना सत्कार तो मेरे बाकी दोस्तों के घर पर नही हुआ मेरा जबकि वो लोग इतने अमीर हैं । 

नहीं नहीं ये लोग गरीब तो नही हैं । लेकिन गरीब नही तो गरीब ऐसा दिखाते क्यों खुद को ? अच्छा घर क्यों नही बनाते ? अच्छे कपड़े क्यों नही पहनते? कुछ समझ नही आता । 

चिन्मय को आदर सत्कार दिख रहा था । उसे दी गयी सारी सुविधाएँ दिख रही थीं । लेकिन जो चीज़ उसे दिख नही रही थी वो थी एक गाँव एक परिवार की भावना । उसे ये नही दिख रहा था की अकेले अकेले भले ही सब गरीब हों, लेकिन एक साथ मिलकर मेहमान नवाजी में कोई कोर कसर नही छोड़ सकते थे वो लोग । उसे ये नही दिख रहा था की वो पैसे से गरीब भले हों पर दिल से बहुत ही अमीर थे । कुल मिलकर उसे मिथिलांचल और मैथिल संस्कृति के सभी बाहरी अंग दिख रहे थे लेकिन इस संस्कृति की आत्मा नही दिख रही थी ।

2 महीने बीत चुके हैं । चिन्मय के प्रोजेक्ट को बहुत सराहा गया । उसे मुंबई विश्वविद्यालय के सर्वश्रेष्ठ प्रोजेक्ट का खिताब मिला है और इसलिए नेशनल जर्नल ऑफ़ सोशल साइंस में उसका 5 पन्नों का लेख भी प्रकाशित हुआ है । चिन्मय ने एक पत्रिका भगवानपुर भी भिजवाया ।

सवेरे 10 बजे थे । ताश का दौर चल रहा था तभी डाकिया पत्रिका लाया। ताश की तरफ ध्यान किसका रहने वाला था अब । इससे पहले की मुखियाजी बोल बोल कर वह आर्टिकल पढ़ते, लोगों ने कयास लगाना शुरू कर दिया ।

“खाने के बारे में लिखा होगा जरुर । उसे बहुत पसंद आया था ।”

“अरे नही , बाढ़ के बारे में लिखा होगा । अब देखो उसी के बल पर कहीं सरकार का ध्यान इधर आये”

“ कुछ लिखा हो न हो ये जरुर लिखा होगा की यहाँ के लोग पैसे से बहुत गरीब हैं लेकिन दिल से सबसे अमीर”
“अरे चुप रहो और पढने दो “- मुखिया जी ने बोला ।

मुखियाजी ने पढना शुरू किया लेकिन लेख की शुरुआत ही कुछ ऐसी थी कि उनके होंठ ज़रा सिल से गए । लिखा था –
मिथिलांचल के लोग, यूँ तो होते बड़े अमीर है लेकिन पता नही क्यों अपने आप को बाहरी लोगों के सामने गरीब दिखने की कोशिश करते हैं”

मुखियाजी ने भोला की तरफ देखा और भोला ने मुखियाजी के तरफ । सब चुप थे । बिलकुल चुप । भोला झा ने एक बार फिर लेख के पहले वाक्य को पढ़ा और फिर धीरे से मचान से नीचे उतर कर दबे पाँव से अपने घर की तरफ बढ़ चले । काश चिन्मय अभी देख पता भोला झा के गालों पर ठहरे आंसू के 2 बूँद ।
 


तारीख: 10.06.2014                                    कुणाल









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