उस घर के दो दरवाज़े हैं। बाकी की दो दीवारें पड़ोस के घरों की दीवारों से जुड़ी हैं, छतों समेत। दोनों दरवाज़ों में से एक घर के सामने खुलता है, जहाँ से वो लोग आ-जा सकते हैं जो इज़्ज़तदार हैं, या जिनमें रुतबा है, या कुछ नहीं हो, तो भी बहुत पैसा है। और दूसरा, छोटा दरवाज़ा दाहिनी तरफ़ खुलता है। इसमें से आने-जाने वालों का विवरण आज तक उस घर के संविधान में नहीं हुआ था, किसी को ज़रूरत भी नहीं हुई। साल में एक बार, शायद दिवाली की सफ़ाई आसान कर देने के लिए खुलता देखा गया होगा। लेकिन आज की तारीख़ में घर में रहने वालों के अलावा, वो मोहल्ला भी ऐसे व्यक्तित्व से परिचित था जिसको ये दरवाज़ा आह्वान देने लगा था।
“सुना तुमने?” शिखा किचन और हॉल के बीच में, रोटी का हॉट-केस हाथ में थामे रुक गई। अपनी पायल, चूड़ी की आवाज़ों से हटकर, बाहरी दुनिया का कुछ सुनने-समझने के लिए उसको अक्सर ऐसे ही थम जाना पड़ता था। “लगता है आ गईं, है ना?”
सचिन चिढ़ गया, “क्या है यार, मैं तुम्हारी तरह ख़ाली हूँ क्या! मेरा कल ऑफ़िस है।”
“तो? मैंने ऐसा भी क्या बोला। तुम्हारी माँ आई हैं, रोटियाँ और बना दूँ, या खाकर आई होंगी आज भी? पूछोगे तो तुम हो नहीं।”
“वो तुम्हारी तकलीफ़ है, मुझे खिला दो, मुझे नींद आ रही है।”
सचिन अब भूख के मारे मरने से पहले तेज़ी में खाना चालू कर चुका था, उसको ख़ाली पेट नींद नहीं आती है। पर बहू के कान उसकी माँ के कदमों की आवाज़ का पीछा कर रहे थे, आँखें बाहर आँगन में, अँधेरे में भी पुष्टि कर लेना चाहती थीं कि कान सही समझे हैं, और इसका नतीजा ये था कि दिमाग़ कश्मकश में चला गया। ‘इतनी तो भली हैं नहीं ये, बेटे ने नहीं पूछा तो मुझ पर कौन सा लाड़ बरसाया है जो मुझे पड़ी है’ सोचा तो सही उसने पर वो वापस किचन में गई, और एक कटोरे में सूखी, एक में तरी वाली सब्ज़ी रखकर तीन रोटी सेक दी। सब कुछ एक थाली में सजाकर दूसरी थाली से ढक कर, चूल्हे के बगल के साफ़ किचन स्लैब में रख दिया, जैसे वो अपने ससुर के लिए रखा करती थी, जब वो इस दुनिया में थे, और रोज़ नशे करके क़हर बरसा रहे थे। उसके लिए नशा और अय्याशी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक उसके ससुर किया करते थे, और एक उसकी सास करती है। “ससुर टीबी से मर गए, और सास बेशर्मी की बीमारी के कारण हमारे लिए मर गईं।” ऐसा वो अपनी किटी-पार्टी में कई बार मज़ाकिया होकर कह आई है। कोई और कहे उससे पहले आप ख़ुद ही ऐलान कर दें, तो बेहतर।
दया थी, पछतावा था, समझ थी, या क्या पता क्या था, जो रोज़ सुबह और शाम की चाय वो ऊपर वाले कमरे की मेज़ में रख आती थी। साथ में वो बिस्किट भी रखती थी जो ससुर को बहुत पसंद थे। क्यों? ये उसकी सास के चरित्र पर एक व्यंग होता था? या उसको पता ही नहीं कि उसकी सास को क्या पसंद है। उस औरत के चटकारे तो बस उसी में लगते थे जिस बिस्किट से उसके पति ने परिचय कराया होता था, वो भी जो आदमी चखने भर को छोड़ दे। उसको नान-खटाई पसंद थी, बहुत। जिस आदमी के साथ वो हर शाम उस बदनाम दरवाज़े से छिपते-छिपाते मिलने जाती है, वो उसको दुनिया भर की नान-खटाई खिलाता है, न जाने कहाँ-कहाँ से मंगवाकर। उसके पास खाने भर को कुछ दाँत बचे हैं, पर उसकी प्रेमिका खा सके, इतना ही मक़सद काफ़ी है सांस लेने के लिए।
लेकिन अपनी सास से परे, शिखा जानती थी कि उसको क्या पसंद है, उसकी माँ बनाया करती थी वो कश्मीरी पुलाव। वो पसंद है उसे। पर ये न तो सचिन को भाता है न उसके बेटे को, तो अब किसके लिए बनाएगी? अपने लिए?
परिवार में बहुत शांति थी, पर ऐसे में भी बहुत हलचल थी उस घर में। लोगों को बड़ा मज़ा आता था इन सभी मामलों में। यही सही, पर अब सचिन और शिखा को लोग निमंत्रण दिया करने लगे थे, हर पार्टी में। फ़ैमिली-डिनर्स में भी। छोटा सा मोहल्ला जो बड़े शहरों के लिबास को ओढ़ रहा था, सो करने के लिए इतनी बैठकें हुआ करती थीं, और उनकी शान थे, सचिन-शिखा। आज महीने का दूसरा रविवार था, और इसीलिए महीने की पहली मीटिंग। सचिन तैयार हो रहा था। शिखा ने अपने बेटे को खाना बना कर खिलाया, और टीवी के सामने बैठा दिया था। अभी लगभग दो घंटे थे मीटिंग में।
कल रात उसका और सचिन का बड़ा गहरा झगड़ा हुआ था उसकी माँ और उनकी मीटिंग में चर्चा को लेकर। तो शिखा सुबह इस सोच के साथ उठी थी कि वो भूल जाएगी उसके कोई सास-ससुर भी थे। इतना सोचकर ही उसका मन इतना हल्का महसूस हुआ, कि उसने जैसे अपने सास-ससुर को माफ़ कर दिया हो। कैसी माफ़ी?
इसका प्रमाण रखने के लिए उसने अपनी सास के लिए कश्मीरी पुलाव बनाया। काजू और किशमिश भून कर डाले। उसको दो थालियों के बीच ढक कर सफ़ाई से रख दिया। पूरी रसोई साफ़ कर के कमरे में सजने चली गई। उसने ठानी थी कि कल सुबह चाय देने जाएगी तो बुढ़िया से पुलाव का विवरण लेगी, और इसी बहाने हिम्मत जुटाएगी बात करने की। बहू नहीं, उपकार-कर्ता बनकर। इसी सोच से निकलकर उसने एक बार ऊपर की हलचल गौर से सुनने की सोची। ऊपर के कमरे से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी, उसने सोचा ‘आज भी चली गई हैं शायद घूमने’, और सोच कर मुस्कुराई कि, ‘मुझे भी विधवा जीवन में प्यार मिले तो मैं क्यों जोगन बनूँ’, हल्के से हँस दी।
इतने काम होते थे उसके बाहर जाने से पहले, घर समेटना, बेटे को वक़्त पर सुला देना, पूरे घर की बत्ती बुझाना, पंखे बंद करना, ताले लगाना। क्या-क्या याद रखती, और क्या-क्या भूलती। तो बिना सोचे सब कुछ बंद कर दिया, सभी जगह ताले मार दिए। घर के दाहिने दरवाज़े पर भी।
सास ठीक आधे-पौने घंटे बाद वापस आई। आज वो खुश नहीं थी। आज वो जूलिएट अपने बूढ़े रोमियो से मिली भी नहीं थी। बात मिलने की ही हुई थी, पर उसके कदम आज रोमियो के घर की ओर नहीं बढ़ पाए। उसको अपने शरीर में थकावट महसूस हुई, जिस प्यार ने उसको सरफ़रोश, आक्रोश, जवान और आज़ाद महसूस कराया था, आज वो प्यार उसको शर्म महसूस करवा रहा था, बेचैन कर रहा था। वो रास्ते के एक पार्क में चली गई, एक बेंच की उम्मीद में। जब बैठी तो उसको सांस आई।
पार्क के हर बच्चे में उसको सचिन दिखता था। अपना पोता नहीं, अपना बेटा। न अपना पति, न माँ-बाप। बस सचिन। वो रो पड़ी। उसको अपनी मौत का ख़याल आने लगा, वो डर गई। मौत से नहीं। मौत तो उसकी रोज़ होती थी, सचिन के पिता की आख़िरी सांस तक। डर था मरने से पहले सचिन को पहले की तरह थाप देकर न सुला पाने का। क्या वो इतनी खुद्दार हो गई थी कि उसकी ममता फीकी पड़ गई थी? ऐसा भी हो सकता था भला? पुत्र-मोह में अंधी होकर लाड़ किया उसने, आज उसी पुत्र के सामने अंधी हो गई? वो उठ खड़ी हुई। वो माँ थी, माँ से भला कोई बेटा कब तक नहीं बात करेगा। अगर उसके आने से पहले उसकी पसंद का खाना बनाएगी, वैसे ही जैसे बचपन में उसे मनाया करती थी, तो कैसे रूठा रहेगा?
उसको एक आशा की किरण मिली, एक आख़िरी दरवाज़ा। इस बार एक सच्ची खुशी का। सामाजिक तौर से सच्ची। वो जल्दी-जल्दी पार्क से निकली और घर के दाहिने ओर खड़ी हो गई। पूरा घर अँधेरे में था। उसने दरवाज़ा खोलने की कोशिश की पर उसमें ताला लगा था। “आज इस दरवाज़े से नहीं, सामने से आऊँगी”, बोलकर वो सामने के दरवाज़े की तरफ़ गई तो उस पर भी ताला लटका देखा। वो थोड़ी देर तक तो सामने सीढ़ियों पर बैठी, पर जब दो-तीन लोगों को आते हुए देखा तो शर्म के मारे हड़बड़ी में पड़ोसियों के गेट की घंटी बजा दी। उनकी बेटी ने गेट खोला।
बच्ची ने हाथ जोड़े, “नमस्ते आंटी।”
“नमस्ते बेटा। वो बेटा ये लोग शायद कहीं गए हैं। घर पूरा बंद है।” वो बोली।
“हाँ आंटी, आज मीटिंग है ना? मम्मी-पापा भी वहीं गए हैं। उन लोगों के आने तक यहीं रुक जाइए।”
उसको सांप सूंघ गया। वो थक गई थी, पर इतनी हिम्मत अभी नहीं आई थी कि अपनी शर्म का सामना कर सके, कम-से-कम तब तक नहीं, जब तक उसका बेटा उसे सभी के सामने अपना न ले।
“नहीं नहीं बेटा, आप बस छत का दरवाज़ा खोल दीजिए, मैं वहीं से अपनी छत पर चली जाऊँगी।”
“अरे आंटी आप ऐसे कैसे फांद लेंगी छत की दीवार। आप अंदर आइए। कौन सा आप ही की छत का दरवाज़ा खुला होगा। नीचे कैसे जाएँगी? रुक जाइए।”
“नहीं बेटा मैं चली जाऊँगी।” बोलकर वो सीढ़ियों से दरवाज़े तक पहुँची। सबके सामने ऐसे आने से बेहतर है वो अपनी छत तक पहुँच कर वहीं इंतज़ार कर लेगी, “बेटा ये दरवाज़ा वापस बंद कर लेना।”
उस बच्ची से भी कुछ छिपा नहीं था। वो समझ रही थी कि इस उम्र में भी वो ऐसी हड़बड़ी क्यों कर रही थीं। उसने न ज़्यादा ज़िद की और न ही नज़र रखी।
रात के दस बज रहे होंगे, बुढ़िया ने टंकी का सहारा लेकर छत की बाउंड्री पर चढ़ाई लगाई। टंकी एकदम कोने में थी, जिस कोने की एक दीवार उसकी छत के एक टुकड़े की बाउंड्री से जुड़ी थी, दूसरी दीवार से पड़ोसी झांकें तो उसकी किचन की खुली गैलरी दिखती है, जहाँ से चिमनी ऊपर को निकलती है। उसको पुलाव और घी में भुने काजू की सुगंध आ रही थी। दीवार पर चढ़े-चढ़े ही उसने नीचे झांका, दो मंजिला नीचे। वो लड़खड़ाई, पर टंकी पर लगी नली को पकड़े हुई थी, तो बच गई। उसने एक बार फिर सोचा, बस तीन फुट की ही बाउंड्री थी, बहुत छोटी। पर ‘नहीं, बिल्कुल नहीं। यही सही है, बस एक छलांग और सब संवर जाएगा’ सोचकर वो मुस्कुराई और कूद पड़ी। पर कूदना और दीवार पर लगी काई पर से पैर फिसलना एक साथ हुआ। सामने गिरने के बजाय, वो कमर के बल वापस बाउंड्री की दीवार से टकराई और लुढ़कती हुई गैलरी में जा गिरी।
मीटिंग ख़त्म हो गई थी, सामने का दरवाज़ा खोलते हुए शिखा के दिमाग़ में ख़याल आया, तो उसने अपना माथा पीटा और हँसी, “अच्छा हुआ तुम्हारी माँ नहीं आती दस बजे से पहले, वरना आज यहीं बैठी रह जाती। वो वाला दरवाज़ा तो मैं अंदर से ही बंद कर आई थी।” बोलते-बोलते वो अंदर आकर दरवाज़ा खोल आई। बिना आँगन की बत्ती जलाए वो सीधा रसोई में गई, पुलाव गर्म करने सोचती हुई कि ठंडा हो गया होगा। ठंडे पुलाव में क्या मज़ा।