पाञ्चजन्य बज उठा
मनुष्य तू कहाँ खड़ा ,
ये जल विहीन भूमि है
निशा की रंगभूमि है
मृग विहीन ,हस्त हीन
प्रवाह रत , दया विहीन l
कीर्तियां असंख्य हैं
मगर झुके से पंख हैं ,
स्वाभिमान का तरु
सूख बन रहा मरू
तेज हीन, बल विहीन,
शौर्य छिन्न , दिशा विहीन ।
प्रत्यंचा पर चढ़ा तू वाण
कोण का लाग निशान,
प्रकाश के तू श्रोत से
भिगो के वाण क्रोध से,
तू प्रहार कर वहां ,
तिमिर है बस रहा जहां ।
वहीँ से अपने वार से
तू रक्त की बौछार कर
लहू से तार तार कर ।
भेद कर निशान को
निशाचरों के वाण को
तू निरस्त कर वहाँ
प्रपंच बस रहा जहां ।
एक ऐसा कार्य कर
प्रकाश फिर से जी उठे,
पवन बहे धरा गगन
समग्र विश्व कह उठे,
धरा में अब भी जान है
यही तेरा प्रमाण है ,
धरा में अब भी जान है
यही तेरा प्रमाण है ।