जब जान लोगे, मेरे भेद सारे
मुझसे मिटा लेना, तुम खेद सारे
और फिर से मिलना, पुराने प्रणय से
वापस पुराने समय से
निशाधीश मेरे, फिर से तुम आना
निश्शेष बातों में, निस्वन जगाना
मेरी धारणाएं बदल सी गयी हैं
पुरानी शिलाएं पिघल सी गयी हैं
—जिनपे, मेरी तुम्हारी परस्पर
राहें थीं पढ़ती, मीलों के पत्थर
अब राह लम्बी है, और हैं दिशाएँ
देवल कई हैं, कई आस्थाएँ
मैं टेक लेती हूँ माथा सभी को
और भूल जाती हूँ थोड़ी विथाएं
निशाधीश फिरभी...अगर हो सके तो
भरी दोपहर में, निशा लेके आना
बहुत थक गए होगे तुमभी निकेतन...
बेघर सी अपनी दशा लेके आना
दोनों चलेंगे गंगा नहाने
पापों दुखों को नदी में बहाने
बदले समय में क्या सच क्या मिथ्या?
वही तुम पुजारी, वही मैं भी सत्या…