
कविता - 01
( रूप घनाक्षरी छन्द )
हद हो गई है
अद्भुत अद्वितीय अकल्पनीय आलिम है,
आह! आदमी असमानता अपनाता ऐंठ।
अत्याचारी अज्ञान आधारित बात बताता,
मानस मूढ़ बनाता बातुल बगल बैठ।
अधिकार आराम अधीन करके कहता,
पाखण्ड परोसो पहचानो पुरानी पैठ।
कहीं करते कठोर काम मजूर “मारुत”
कहीं कमाते करोड़ों सहारे शिला के बैठ।।
कविता - 02
( देव घनाक्षरी छन्द )
मैं कुछ भी कर सकता हूँ
राजन राजगद्दी पर पाँव पसार पड़ा,
डरपोक डर के कारण डरावत डरत।
कुर्सी कैसे कभी कोई प्रजापालक पावत,
जेब जनता जगाने वाले वीर वह धरत।
आज अहंकारी अति अराजक बन बैठा,
पड़े पंखहीन पंछी “मारुत” मुट्ठी में करत।
करते कत्ल से सोच शुरू हमेशा हत्यारे,
चुनाव चारा चरने को कुकर्म क्या-क्या करत।।