मैं मटमैला माटी सा, माटी की मेरी काया

मैं मटमैला माटी सा, माटी की मेरी काया,
माटी से माटी बना, माटी में ही समाया।
समय आया, आकाश समेटे घाटी-माटी पिघलाया,
अगन, पवन, पानी में घोलकर, तन यह मेरा बनाया।।

 

जनम हुआ माटी से मेरा, माटी पर ही लिटाया,
माटी चखी, माटी ही सखी, माटी में ही नहाया।
माटी-घर, माटी ही घाट, माटी के खेत का खाया,
माटी-चाक आजीविका, माटी का धन मैं लाया।।

 

माटी तनय, माटी सुता, माटी सा मेरा साया,
माटी ही मात्, माटी ही तात, माटी की ऐसी माया।
माटी ही भ्रात, माटी बहन, माटी परिवार बसाया,
माटी से बंधन जोड़कर, माटी की दुल्हन लाया।।

 

माटी का मन, माटी भवन, माटी की अलख जगाया,
माटी गिरीश, माटी को पीस, माटी का तिलक लगाया।
माटी का लेप, माटी को थोप, माटी की भस्म रमाया,
माटी में मूरत गूढ़कर, माटी को ईश बनाया।

 

हे माटी! मेरी मति फिरी, जो माटी से उलझाया,
माटी मरी न, मैं मरा, माटी ने खेल खिलाया,
माटी का घड़ा, माटी में पड़ा, माटी में गया दबाया,
मैं फिर मटमैला माटी सा, माटी में ही जा समाया।
 


तारीख: 16.07.2017                                    एस. कमलवंशी









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