नवआशा

है उलझी भटकी भ्रमणशीलता, मंगलघट तक तङप रहे
हर चौखट दीमक बस्ती, खोती जाती अकृत अभिलाषा

वसुधा कांपे हर इक डग पे, भूतल-चालक लड़खाया सा
पवित्रता संग पशुत्‍व बैठा, अवनति खोजत नवपरिभाषा

ताबूतों के हाट सजे हैं,अंतर्मन बिकता-बिक रही आत्मा
मिले मोल तो हम भी उठ बैठें, सोयी लाशों की जिज्ञासा

जिस रात्रि को पाहुन जाना, वो ही स्याही जेवर बन बैठी
मेघहीन बिखरा अंबर और, क्षण क्षण धूंधलाती प्रत्याशा

सिंधु मथकर अमृत पाया तो अक्षुण्ण हलाहल क्यूं छाया
है अमृतघट पर नहीं प्यास, उदासीन तिरस्कृत अमृताशा

अघटित कब तक नहीं घटेगा, अकालकुसुम उगना होगा
जिव्हा प्रश्नों से नहीं रुकेगी, भले रहे अनुत्तरित हर भाषा

कंटक बहुधा कंटक ही काटे, निर्वाण दिलावत अंधियारा
अकुलाहट जब जब पार उतरती, सदैव जनती नवआशा 
 


तारीख: 04.07.2017                                                        उत्तम दिनोदिया






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