बादल, बन अमृत कलश
बूंद - बूंद झरा
तृप्त हुई रुक्ष- केशिणी
पीत वसना धरा
झूमे डाली बूंदों की लय पर
पवन की थाप से, पुष्प गये बिखर
गगन में शुभ्र रेखा सा पंछी दल
ताल किनारे उतरा
घटा घनघोर, दिनकर का तेज घटा
भर लिया जब मेघों ने अंक में
नन्हे बालक सा
बुझा कर तृषा धरा की
पवन संग उड़ चली बदली
खिलखिलाए तारे
रंगत अंबर की बदली
दिन संध्या का भेद मिटा
नव- दुल्हन सी आयी
दबे पांव निशा
धुले-धुले श्वेत कपासी आकाश में
झीने अभ्रावरण से
शशांक हंस पड़ा